पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५६३

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४९४ ] ४-चुल्लवग्ग [ ७४४१२ दु?ल्ल (=दुःस्थौल्य)-आपत्तियोंको अ-दुटुल्ल आपत्ति कहते हैं, (१८) अ-बुट्ठल आप त्तियोंको दु?ल्ल आपत्ति कहते हैं। वह इन अठारह बातोंसे अपकासन (अननुज्ञात)को विपकासन (=अनुज्ञात) करते हैं, आवेणि (स्थानीय संघकी परम्पगमे आया)-उपोसथ करते हैं, आवेणिप्रवारणा करते हैं, आवेणि-संघ कर्म करते हैं। इतनेगे उपालि ! मंब भिन्न (=फूट गया) होता है।" 6 (३) सङ्घ-सामग्रीकी व्याख्या "भन्ते! संघ-सामग्री (संघमें एकता) संघ-सामग्री कही जाती है, कितनेस भन्ने ! संघ समग्र (=एकताको प्राप्त) कहा जाता है ?" "उपालि ! जब भिक्षु (१) अधर्मको अधर्म कहते हैं; (२) धर्मको धर्म कहते हैं। (३) अवि- नयको अविनय०; (४) विनयको विनय ०। (५) तथागतके अ-भापित अ-लपिनको तथागतका अ-भाषित अ-लपित०; (६) ० भापित-लपितको ० भापित-लपिन०। (७) ० अन्-आत्रीर्णको अन्-आचीर्ण०; (८) ० आचीर्णको ० आचीर्ण० । (९) ० अ-प्रनप्तको ० अ-प्रनप्न ०; (१०) ० प्रजप्त को ० प्रज्ञप्त ० । (११) अन्-आपत्तिको अन्-आपत्ति; (१२) आपत्तिको आपत्तिः । (१३) लघुक- आपत्तिको लघुक-आपत्ति; (१४) गुरुक-आपत्तिको गुरुक-आपत्ति० । (१५) स-अवशेष आपत्तिको सावशेष-आपत्ति०; (१६) अन्-अवशेष-आपत्तिको अन्-अवशेप-आपत्तिः । (१७) दुछुल्ल-आपत्तिको दुठुल्ल-आपत्ति०; (१८) अ-दुठुल्ल-आपत्तिको अ-दु?ल्ल-आपत्ति कहते हैं। वह इन अठारह बातोंस न अपकासन करते हैं, न विपकासन करते हैं, न आवेणि-उपोसथ करते हैं, न आवेणि प्रवारणा करते हैं, न आवेणि-संघ-कर्म करते हैं। इतनेसे उपालि ! संघ समग्र होता है।" 7 - ४-नरकगामी, अचिकित्स्य व्यक्ति (१) सङ्घमें फूट डालनेका पाप "भन्ते ! समग्र संघको भिन्न (=फूटा) करके वह क्या कमाता है ?" "उपालि ! समग्र संघको भिन्न करके कल्पभर रहनेवाला पाप कमाता है, कल्पभर नरकमें रहता है। 8 "संघ-भेदक (पुरुप) कल्प भर अपाय नरकमें रहनेवाला होता है । वर्ग (पार्टीवाजी) में रत, अ-धर्ममें स्थित (अपने) योग-क्षेमका नाश करता है । समग्र संघको भिन्न करके कल्प भर नरकमें रहता है" ॥ (१६)। "भन्ते ! भिन्न संघको समग्र करके वह क्या कमाता है ?" "उपालि ! भिन्न संघको समग्र करके वह ब्राह्म (=उत्तम) पुण्यको कमाता है, कल्पभर स्वर्गमें आनन्द करता है। 9- "संघकी समग्रता (=एकता) सुखमय है, और समग्रोंका अनुग्रह (भी)। समग्रतामें रत, धर्ममें स्थित (पुरुप अपने) योग-क्षेमका नाश नहीं कराता । संघसे समग्र करके कल्प भर (वह) स्वर्गमें आनंद करता है" ॥(१७)। (२) कैसा संघमें फूट डालनेवाला नरकगामी और अचिकित्स्य होता है, और कैसा नहीं "क्या भन्ते ! संघ-भेदक (=संघमें फूट डालनेवाला), (जोकि) कल्पभर अपाय-नरकमें रहनेवाला है, अचिकित्स्य (=जिसका इलाज नहीं हो सकता, जो सुधर नहीं सकता) है ?" "है, उपालि ! संघ-भेदक ० अ-चिकित्स्य।"