पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५७

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१४ भिक्खु-पातिमोक्ख [ ६२।१२-१३ भिक्षुओंको उस भिक्षुसे यह कहना चाहिये-मत आयुष्मान् अपनेको अवचनीय ( = दूसरोंका उपदेश न सुनने वाला ) बनायें। आयुष्मान् अपनेको वचनीय ही वनावें । आयुष्मान् भी भिक्षुओंको उचित वात कहें। भिन्तु भी आयुप्यानको उचित वात कहें । परस्पर कहने-कहाने, परस्पर उत्साह दिलानेसे ही भगवानको यह मंडली ( एक दूसरे से ) संबद्ध है।' भिक्षुओंके ऐसा कहने पर भी यदि वह अपनी ज़िदको पकड़े रहे तो भिन्नु तीन बार तक उस ( जिद् )से हटानेके लिये उसको कहें। यदि तीन बार कहनेपर वह उस (जिद )को छोड़ दे तो यह उसके लिये अच्छा है। यदि न छोड़े तो यह संघादिसेस है। (६) कुलोंका 'बिगाड़ना १३-कोई भिक्षु किसी गाँव या कस्बे में कुल-दूपक' और दुराचारी होकर रहता है। उसके दुराचार।देखे भी जाते हैं, सुने भी जाते हैं। कुलोंको उसने दूपित किया है यह देखा भी जाता है सुना भी जाता है। तो दूसरे भिक्षुओंको उस भिक्षुसे यह कहना चाहिये-आयुष्मान् कुल-दूषक और दुराचारी हैं। आयुष्मानके दुराचार देखे भी जाते हैं, सुने भी जाते हैं। आयुष्मान्ने कुलोंको दूषित किया है, यह देखा भी जाता है, सुना भी जाता है। इस निवास (-स्थान )से, आयुष्मान चले जायँ । आपका यहाँ रहना ठोक नहीं है । भिक्षुओं द्वारा ऐसा कहे जाने पर यदि वह भिक्षु ऐसा बोले-'भिक्षु लोग रागके पीछे चलने वाले हैं, द्वेषके पीछे चलने वाले हैं, मोहके पीछे चलने वाले हैं, भयके पोछे चलने वाले हैं। उन्हीं अपराधोंके कारण किसी-किसीको हटाते हैं और किसी-किसीको नहीं हटाते ।' तो उन भिक्षुओंको उस भिक्षुसे यह कहना चाहिये-'मत आयुष्मान ऐसा कहें । भिक्षु लोग रागके पीछे चलने वाले नहीं है, द्वेषके पीछे चलने वाले नहीं हैं, मोहके पीछे चलने वाले नहीं हैं । भयके पीछे चलने वाले नहीं हैं, आयुष्मान् कुल-दूपक और दुराचारी हैं। आयुष्मानके दुराचार देखे भी जाते हैं, सुने भी जाते हैं। आयुष्मान्ने कुलोंको दूषित किया है, यह सुना भी जाता है, देखा भी जाता है । इस निवास (-स्थान ) से आयुष्मान चले जायँ । आपका यहाँ रहना ठीक नहीं है ।' भिक्षुओं द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर भी यदि वह भिक्षु अपनी जिदको पकड़े रहे तो भिक्षु तीन बार तक उस (ज़िद )से हटने के लिये उसको कहें । यदि तीन बार कहने पर वह उस ( जिद )को छोड़ दे तो यह उसके लिये अच्छा है । यदि न छोड़े तो यह संघादिसेस है २ ! १ देखो चुल्लवग्ग(६२१७) श्रावस्तीमें ६ आदमी ( आपसमें ) मित्र थे। वह आपसमें सलाह कर दोनों अर श्रावकों-सारिपुत्र और मौद्गल्यायनके पास प्रबजित हुये । पाँच वर्ष बीत जानेपर मात्रिका को ख़ब सीखकर उन्होंने सलाहकी-देशमें कभी सुभिक्ष भी होता है, कभी दुर्भिक्ष भी; इसलिये हम सबको एक जगह नहीं वास करना चाहिये। फिर उन्होंने ( १ ) पण्डुक और ( २) लोहि- तकसे यह कहा -'आवुसो ! श्रावस्ती में सत्तावन लाख कुल निवास करते हैं। ( वह ) अस्सी हजार गाँवोंसे अलंकृत, तीन सौ योजन विस्तृत काशी और कोसल देशोंकी आमदनीका मुख है, यहीं तुम निश्चल हो (वास करो)।...' (३) मेत्तिय और ( ४ ) भुम्मजकसे कहा-'आवुसो ! राजगृहमें अट्ठारह कोटि मनुष्य वास करते हैं । ( यह ) अस्सी हजार गाँवोंसे अलंकृत, तीन सौ