पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६२।१७ ] २-संधादिसेस [ १५ आयुष्मानो ! यह तेरह संघादिसेस कहे जाते हैं-नव प्रथम (बार हीमें ) दोष ( समझे जाने ) वाले और चार तीन बार ( दोहराने पर ) । जिनमेंसे किसी एक दोष- को करके, भिनु जब तक कि जानकर प्रतिकार करता है तब तक (और भिक्षुओंके ) साथ निवास करनेकी इच्छा छोड़ वह भिक्षु परिवास करे । परिवास कर चुकने पर फिर छः रात तक वह भिनु मानत्व करे । मानत्व पूरा हो जाने पर वह भिनु जहाँ बीस पुरुषों वाला भिक्षु-संघ हो उसके पास जावे । यदि बीस पुरुषोंमेंसे एक भी कम वाला भिक्षु-संघ हो और वह उस भिक्षुको (अपराध ) मुक्त करे तो वह भिक्षु मुक्त नहीं है, और वे भिनु लोग निन्दनीय हैं-यह वहाँ पर उचित (क्रिया ) है। आयुष्मानोंसे पूछता हूँ-क्या ( आप लोग ) इनसे शुद्ध हैं ? दूसरी बार भी पूछता हूँ--क्या शुद्ध हैं ? तीसरी बार भी पूछता हूँ-क्या शुद्ध हैं ? आयुष्मान् लोग शुद्ध हैं, इसीलिये चुप हैं-ऐसा मैं धारण करता हूँ। संघादिसेस समाप्त ॥२॥ योजन विस्तृत अंग और मगध देशोंकी आमदनीका मुख है, वहीं तुम निश्चल हो ( वास करो...' । (५) अश्वजित् और (६) पुनर्वसुकसे कहा-'आबुसो ! कीटागिर पर दोनों मेघोंकी कृपा है, वहाँ ( अच्छे ) सस्य ( फसल ) उत्पन्न होते हैं । वहाँ तुम निश्चल हो ( वास करो)।' देखो पुलवग (६२११) देखो चुल्लबग (६२।३ ) 'उत्तर राजपुत्रने सुवर्णका दैत्य वनवा महापद्म स्थविरके लिये भेजा। स्थविरने अविहित समभ. ( लेने ) इन्कार कर दिया (अट्ठकथा)।