पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५७४

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८६४१२] जन्ताघरके व्रत [ ५०५ ने आँगनमें हवाके रुग्व शय्या-आसन फटफटाये। भिक्षु धूलये भर गये । ०अल्पेच्छ० भिक्षु० । |-- "तो भिक्षओ ! भिक्षुओंके लिये शयन-आसनका व्रत बतलाता हूँ, जैसेकि भिक्षुओंको शयन- आसनके संबंधमें वर्तना चाहिये। "जिस बिहार में भिक्षु वान करता है, यदि वह बिहार न्याफ़ न हो, और समर्थ हो तो साफ़ करना चाहिये । विहारवी सफाई करते वक्त पहिले पात्र-चीवर निकालकर, एक ओर रखना चाहिये। यदि पाखानेकी मटकी में जल न हो । "यदि वृद्धके साथ एक विहारमें रहता हो, तो वृद्धसे बिना पूछे उद्देश नहीं (=प्रस्ताव) देना चाहिये, परिपृच्छा (=प्रश्न पूछना) नहीं देनी चाहिये, स्वाध्याय (=गुत्रोंका ऊँचे स्वर से पाठ) नहीं करना चाहिये. न धर्म-भापण करना चाहिये, न दीपक जलाना चाहिये, न दीपक बुझाना चाहिये, न श्वितकी खोलनी चाहिये, न खिळकी बन्द करनी चाहिये । यदि वृद्धके साथ एकही चंक्रम ( टहलनेके ग्थान) पर टहलना हो, तो जिधर वृद्ध टहलना हो, उधरसे घुम जाना चाहिये । वृद्धको संघाटीके कोनेको नहीं रगलना चाहिये। "भिक्षओ ! यह भिक्षओके गयन-आसनके व्रत है, जमे०।" 6 (२) जन्ताघर के व्रत उस समय पई वर्गीय भिक्ष स्थविर भिक्षुओंके निवारण करनेपर भी अनादर करनेके लिये जन्नाघरमे बहुतया काष्ठ ग्ग्ब आग डाल वार बन्दकर बाहर बैठने थे। भिक्षु गर्मीस तप्त हो (निकालने के लिये) द्वार न पा मछिन हो गिर पळते थे। अन्पे छ भिक्षु० । ०|-- "शिक्षुओ' स्थविर भिक्षआयो निवारण करनेपर भी अनादर करने के लिये जन्ताघरमें बहुतसा काट रयकर आग न डालनी चाहिये, जो दे उसे दुवकटका दोष हो । "भिक्षुओ ! द्वार बन्दवार बाहर न बैठना चाहिये, जो बैठे उसे दृाकटका दोप हो। "तो भिक्षओ ! भिक्षुओको गन्नाघरवा दन मापन करता है, जैसे कि भिक्षुओंको जन्नाघरमें बनना चाहिये।