पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/६१७

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१२-सप्तशतिका-स्कंधक १-वैशालीमें विनय-विराद्ध आचार । २-दोनों ओरसे पक्ष-संग्रह । ३—द्वितीय संगीतिकी कार्यवाही। ६१-वैशालीमें विनय-विरुद्ध प्राचार १-वैशाली ( १ ) वैशालीमें पैसे रुपयका चढ़ावा उस समय भगवान्के परिनिर्वाणके सौ वर्ष बीतनेपर, वैगा ली-निवमी व ज्जि पुत्त क (=वृज्जि-पुत्र ) भिक्षु दश वस्तुओंका प्रचार करते थे- "भिक्षुओ ! (१) ङिग-लवण-कल्प विहित है । (२) द्वि-अंगुल-कल्प० । (३) ग्रामान्तर- कल्प० । (४) आवास-कल्प० । (५) अनुमति-कल्प० । (६) आत्रीर्ण-कल्प० । (७) अमथित- कल्प० । (८) जलोगीपान० । (९) अ-दशक० (१०) जातरूप-रजतः । उस समय आयुष्मान् य श का क ण्ड क-पुत्त व ज्जी में चारिका करते जहाँ वैशाली थी वहाँ पहुँचे । आयुष्मान् यश० वैशालीमें म हा व न की कूटागार-शालामें विहार करते थे। उस समय वैशालीके वज्जि-पुत्तक भिक्षु उपोसथके दिन काँसेको थालीको पानीसे भर भिक्षु-संघके बीच में रखकर, आने जाने वाले वैशालीके उपासकोंको कहते थे- "आवृसो ! संघको कार्षापण' दो, अधेला अर्द्ध-कार्पापण दो, पाई (=पाद-कापण ) दो, (=माषक रूप) भी दो। संघके परिप्कार (=सामान) का काम होगा।" ऐसा कहनेपर आयुष्मान् यश० ने वैशालीके उपासकोंसे कहा-“मत आवुसो ! संघको कार्यापण (=पैसा) ० दो, शाक्यपुत्रीय श्रमणोंको जातरूप (सोना) रजत (=चाँदी) विहित नहीं हैं, शाक्यपुत्रीय श्रमण जात-रूप रजत उपभोग नहीं कर सकते, जातरूप-रजत स्वीकार नहीं कर सकते । शाक्यपुत्रीय श्रमण जात-रूप-रजत त्यागे हुये हैं।. . .! आयुप्मान् यश०के ऐसा कहनेपर भी ' उपासकोंने संघको कार्पापण० दिया ही । तब वैशालिक बज्जि-पुत्तक भिक्षुओंने उस रातके बीतनेपर, भोजनके समय हिस्सा लगाकर बाँट दिया । तब वैशालीके वज्जि-पुत्तक भिक्षुओंने आयुप्मान् यग काकण्डपुत्तसे कहा- 'आवस यश ! यह हिरण्य (=अशर्फी) का हिस्सा तुम्हारा है ।" 'आवुसो ! मेरा हिरण्यका हिस्सा नहीं, मैं हिरण्यको उपभोग नहीं कर सकता।" (२) पैसा न लेनेसे यशका प्रतिसारणीय कर्म तव वेशालिक वज्जिपुत्तक भिक्षुओंने-'यह य श का क ण्ड क पुत्त, श्रद्धालु प्रसन्न उपासकोंको , मासा कार्षापण अर्ध कार्षापण, पाद कार्षापण, माषक रूप--यह उस समयके ताँबेके सिक्के थे । [ १२१११२ ५४८ ]