पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/६१८

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! ०। - १२९११३ ] यगका अपना पक्ष मजबूत करना [ ५४९ निन्दता है, फटकारता है, अ-प्रसन्न करता है; अच्छा हम इसका प्रतिसारणीय' कर्म करें।' उन्होंने उनका प्रतिसारणीय कर्म किया । तब आयुप्मान् यग ने वैशालिक वज्जिपुत्तक भिक्षुओंसे कहा--- "आवुसो ! भगवान्ने आजा दी है कि प्रतिसारणीय कर्म किये गये भिक्षुको, अनुदूत देना चाहिये । आवुसो ! मुझे (एक) अनुदूत भिक्षु दो।" तब वैगालिक बज्जिपुत्तक भिक्षुओंने सलाहकर ० यगको एक अनुदूत (-साथ जानेवाला) दिया। तब आयुप्मान् यश • ने अनुदून भिक्षके साथ वैशाली में प्रविष्ट हो. वैशालिक उपासकोंगे कहा- "आयुष्मानो ! मैं बहादु-प्रसन्न, उपासकोंको निन्दता हूँ, फटकारता हूँ, अप्रसन्न करता हूँ, जो कि में अधर्मको अधर्म कहता हूँ, धर्मको धर्म कहता हूँ, अबिनयको अविनय कहता हूँ, विनयको विनय कहता हूँ ? आधुसो ! एक समय भगवान् श्रा व म्नी में अ ना थ-पि डि क के आराम जे त व न में विहार करते थे । वहाँ आधुसो ! भगवान्ने भिक्षुओंको आमंत्रित किया—भिक्षुओ ! चंद्र-सूर्यको चार उपक्लेश (=मल) हैं, जिन उपक्लेगोंने उपक्लिाष्ट ( मलिन ) होनेपर, चंद्र-सूर्य न तपते हैं-न भालते हैं, न प्रकागते हैं । कौनसे चार ? भिक्षुओ ! बादल, चंद्र-सूर्यका उपक्लेश है, जिस उपक्लेश- से ० । भिक्षुओ ! महिका (: कुहरा) ० । धूमरज (: धूमकण) ० । गहु असुरेन्द्र (= ग्रहण) इसी प्रकार भिक्षुओ ! श्रमण ब्राह्मणके भी चार उपक्लेग हैं, जिन उपक्लेगोंमे उपक्लिप्ट हो श्रमण ब्राह्मण नहीं तयते ० । कौनने चार ? भिक्षुओ ! (१) कोई कोई श्रमण ब्राह्मण सुरा पीते हैं, मेरय (= कच्ची शराब) पीते हैं, मुरा-मेरय-पानसे विरत नहीं होते । भिक्षुओ ! यह प्रथम ० उपक्लेश है ० । (२) भिक्षुओ ! कोई कोई श्रमण ब्राह्मण मैथुनधर्म मेवन करते हैं, मैथुन-धर्मसे विरत नहीं होते । ० यह दूसरा । (३) जातरूप-रजत उपभोग करते है, जातरूप-रजतके ग्रहणसे विरत नहीं होतेः । (४) ० मिथ्या-जीविका करते हैं, मिथ्या-आजीवसे विरत नहीं होते । भिक्षुओ ! यह चार श्रमणोंके उपक्लेग हं० । जिन उपवलेशोंसे उपक्लिष्ट हो श्रमण ब्राह्मण नहीं तपते ० ।' "आवृतो ! भगवान्ने यह कहा । यह कहकर सुगतने फिर यह और कहा- कोई कोई श्रमण ब्राह्मण राग-द्वेपसे लिप्त हो, अविद्यासे ढंके पुरुप, प्रिय (वस्तुओं) को पसन्द करनेवाले ।। (१) । मुरा और कच्ची शराब पीते हैं, मैथुनका सेवन करते हैं । (वह) अज्ञानी चाँदी और सोनेको सेवन करते हैं ।। (२) । कोई कोई श्रमण ब्राह्मण झूठी आजीविकासे जीवन बिताते हैं । आदित्य-बंधु मुनिने इन्हें उपक्लेश कहे हैं । (३) ।। जिन उपक्लेगोंने उपक्लिप्ट हो यह श्रमण ब्राह्मण, अशुद्ध और मलिन हो न तपते न भासते न विरोचते हैं" ॥ (८)। अन्धकारसे घिरे तृष्णाके दास बंधनमें बँधे, घोर करसी को बढ़ाते हैं (और) आवागमनमें पळते हैं" ॥(५)॥ (३) यशका अपना पक्ष मजबूत करना "गेमा कहनेवाला में श्रद्धालु, प्रमन्न आयुष्मान् उपासकोंको निन्दता हूँ. ? सो मैं अधर्मको कहता हूँ । एक समय आवुसो ! भगवान् रा ज ग ह में कलन्दक-निवापके वेणुवनमें विहार करते अधर्म 'देखो महादग्ग ९९४१४ (पृष्ठ ३१४) । मशानमें बार बार जलना गळना। २सूर्य-वंशी।