पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/६२

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६४११-१८ ] ४-निस्सग्गिय-पाचित्तिय [ १९ के कामका नहीं हुआ। आयुष्मानो ! अपने (धन)को देखो, तुम्हारा ( वह ) धन नष्ट न हो जाय-यह वहाँपर उचित कर्तव्य है। (इति) चीवर वग्ग ॥१॥ (२) आसनके कपड़े आदि ११-जो कोई सिनु कौपेय' से मिश्रित आसनको बनवाये उसे निस्सग्गिय पाचित्तिय है। १२-जो कोई भिक्षु स्वाभाविक काले सेड़के ऊनका आसन बनवाये उसे निस्सग्मिय पाचित्तिय है। १३–नया आसन बनवाते वक्त भिक्षुको भेड़के उनमेंसे दो भाग शुद्ध काला, तोसरा भाग सफेद और चौथा भाग कपिल वर्णका लेना चाहिये । यदि भिक्षु दो भाग शुद्ध काले, तीसरा भाग सफेद और चौथा भाग कपिल वर्णके मेड़के ऊनको न लेकर नया श्रासन बनवाये तो उसे निन्सग्गिय पाचित्तिय है। १४–नया आसन बनवाकर भिक्षुको छः वर्ष तक धारण करना चाहिये । यदि छः वर्षके पहिले हो उस आसनको छोड़े या बिना (ही) छोड़े भिक्षुओंको सम्मतिके बिना दूसरे नथे श्रासनको वनवाये तो उसे निस्सग्गिय पाचित्तिय है। १५–विछानेका श्रासन वनवाते वक्त भिक्षुको पुराने आसनके छोरसे बुद्धके वित्ते सर दुर्वर्ण करनेके लिये लेना चाहिये। यदि भिक्षु पुराने आसनके छोरसे वुद्धके विन्ते भर विना लिये नया श्रासन वनवाये तो उसे निस्सग्गिय पाचित्तिय है। १६-रास्तेमें जाते वक्त यदि सिक्षुको भेड़की ऊन प्राप्त हो तो इच्छा होनेपर भिन्नु ले सकता है । ( किन्तु ) लेकर लेचलनेवाला न मिलनेपर तीन योजन भर तकही (अपने) ले जा सकता है। लेचलनेवालेके न होनेपर भी यदि उससे आगे लेजाय तो उसे निस्सन्गिय पाचित्तिय है। १७–जो कोई भिक्षु प्रजातिका भिक्षुणीसे भेड़के ऊनको धुलवाये, रंगवाये या जटा न्बुलवाये, उसको निस्सग्गिय पाचित्तिय है। (३) चाँदी-सोने रुपये-पैतेका व्यवहार १८-जो कोई भिनु सोना या रजत (चाँदी आदिके सिक्के )को ग्रहण करे या ग्रहण करवाये या रखे हुए का उपयोग करे तो उसे निस्सग्गिय पाचित्तिय है। १ कोडे के अंटेसे उत्पश होने वाले स्त-रेशम, अंडी, टसर आदि । रजत कापण ( सिवय )का नाम है जो ताँबेके मापक (=माशा ), दारुके माशा और लोहये. मागाये रूप में व्यवहन होता था । अट्टकथा मोने, चाँदी, ताँबे, लकड़ी, हड्डी, चमड़े, लाहके लिहीका भी जिन जाता है ।