५५६ ] ४-चुल्लवग्ग [ १२३:३ अनु श्रावण -"भन्ते ! संघ मुझे सुने हमारे इस विवादके निर्णय करते समय० । संघ चार प्राचीनक और चार पावेयक भिक्षुओंकी, उ द्वा हि का से इस विवादको शान्त करनेके लिये चुनता है । जिस आयुष्मान्को चार प्राचीनक०, चार पावेयक भिक्षुओंकी उदाहिकामे इस विवादका शान्त करना पसन्द है, वह चुप रहे, जिसको नहीं पसन्द है वह बोले । . . धा र णा-"संघने मान लिया, संघको पसन्द है, इसलिये चुप है-ऐसा मैं इसे समझता हूँ।" (२) अजित अासन-विज्ञापक हुये उस समय अजित नामक दशवीय' भिक्ष-संघका प्रातिमोक्षोद्देशक (=उपोसथके दिन भिक्षु नियमोंकी आवृत्ति करनेवाला) था। संघने आयुप्मान् अजितको ही स्थविर भिक्षुओंका आसन-विज्ञापक (=आसन बिछानेवाला) स्वीकार किया। तब स्थविर भिक्षुओंको यह हुआ- 'यह बा लु का रा म रमणीय शब्दरहित=घोप-रहित है, क्यों न हम वालुकाराममें (ही) इस अधि- करणको शान्त करें।' (३) सङ्गोतिको कार्यवाही तब स्थविर भिक्षु उस विवादके निर्णय करनेके लिये वालुकाराम गये । आयुप्मान् रे व त ने संघको ज्ञापित किया- "भन्ते ! संघ मुझे सुने—यदि संघको पसन्द हो, तो मैं आयुप्मान् सर्वकामीको बिनय पूछू?' आयुष्मान् सर्वकामीने संघको ज्ञापित किया- "आवुस संघ ! मुझे सुने--यदि संघको पसन्द हो, तो मैं आयुष्मान् रेवत द्वारा पूछे विनय को कहूँ।" आयुष्मान् रेवतने आयुष्मान् सर्वकामीसे कहा- ( १) "भन्ते ! श्रृंगि-लवण-कल्प विहित है ?" "आवुस ! श्रृंगि-लवण-कल्प क्या है ?" "भन्ते ! सींगमें।" "आवुस ! विहित नहीं है।" "कहाँ निषेध किया है ?" "श्रावस्तीमें, सुत्त 'विभंग' २में ।" "क्या आपत्ति (=दोष ) होती है ?" "सन्निधिकारक (=संग्रहीत वस्तु) के भोजन करने में 'प्राश्चित्तिक' (=पाचित्तिय) ३ ।" "भन्ते ! संघ मुझे सुने—यह प्रथम वस्तु संघने निर्णय किया। इस प्रकार यह वस्तु धर्म- विरुद्ध, विनय-विरुद्ध, शास्ताके शासनसे बाहरकी है । यह प्रथम शलाकाको छोळता हूँ।" (२) "भन्ते ! द्वयंगुल-कल्प विहित है ?"010। "आवुस ! नहीं विहित है।" "कहाँ निपिद्धकिया ?". "राजगृहमें, 'सुत्त वि भंग'३में ।" "वया आपत्ति होती है ?" १ उपसम्पदा होकर दश वर्षका । विभंग ही सुत्त-विभंग कहा जाता है । पातिमोक्ख-सुत्तकी प्राचीन व्याख्या भिक्षु-भिक्षुणी- भिक्खुपातिमोक्ख १५१३८ (पृष्ठ २६) ।
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