पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/६२७

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५५८ ] ४-चुल्लवग [ १२९३३ (८) "भन्ते ! 'जलोगी-पान' विहित है ?" ०१० । "आवुस ! नहीं विहित है।" "कहाँ निपेध किया ?" "को शा म्बी में, 'सुत्त-वि भंग" में।" "क्या आपत्ति होती है ?" "सुरा-मेरय पानमें 'पाचित्तिय' ।" "भन्ते ! संघ मुझे सुने ।" (९) "भन्ते ! 'अदशक-निपीदन' (= बिना मगजीका विछीना) विहित है ? "आवुस ! नहीं विहित है।" "कहाँ निषेध किया ?" "श्रावस्तीमें 'सुत्त-विभंग' में।" "क्या आपत्ति होता है ?" "काट डालनेका 'पाचित्तिय'२ ।" "भन्ते ! संघ मुझे सुने।" (१०) "भन्ते ! 'जातरूप-रजत' (=सोना-चाँदी) विहित है ?" "आवुस ! नहीं विहित है।" "कहाँ निषेध किया ?" "रा ज गृह में 'सुत्त-विभंग' में ।" "क्या आपत्ति है ?" "जात-रूप-रजत प्रतिग्रहण विषयक 'पाचित्तिय' ।" "भन्ते ! संघ मुझे सुने–यह दसवीं वस्तु संघने निर्णय की । इस प्रकार यह (=बात) धर्म-विरुद्ध, विनय-विरुद्ध, शास्ताके शासनसे वाहरकी है । यह दसवीं शलाका छोळता हूँ।" "भन्ते ! संघ मुझे सुने—यह दश वस्तु, संघने निर्णयको' । इस प्रकार यह वस्तु धर्म-विरुद्ध, विनय-विरुद्ध, शास्ताके शासनसे बाहरकी है।" ( सर्वकामी )-'आवुस ! यह विवाद निहत हो गया, शांत, उपशांत, सु-उपशांत हो गया । आवुस ! उन भिक्षुओंकी जानकारीके लिये (महा-)संघके वीचमें भी मुझे इन दश वस्तुओंको पूछना।" तव आयुष्मान् रे व त ने संघके बीचमें भी आयुष्मान् सर्वकामीको यह दस वस्तुयें पूछीं। पूछनेपर आयुष्मान् सर्वकामीने व्याख्यान किया। इस विनय-संगीतिमें, न कम, न वेशी सात सौ भिक्षु थे। इसलिये यह विनय-संगीति, 'सप्त- शातिका' कही जाती है। बारहवाँ सत्तसतिका क्खन्धक समाप्त ॥१२॥ चुल्लवग समाप्त १भिक्खुपातिमोक्ख ५।५१ (पृष्ठ २७) । उनी४१८ (पष्ट १९)। वहीं १५।८९ (पृष्ट ३१) ।