पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/७३

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३० , ७७- ७८- भिक्खु-पातिमोक्ख [६५।७४-८३ वक्त तू अच्छी तरह दृढ़ कर मनमें धारण नहीं करता । उस मोहके करनेपर (=मृढ़तामें ) पाचित्तिय है। (२०) मारना धमकाना ७४-जो कोई भिक्षु कुपित, असंतुष्ट हो ( दूसरे ) भिक्षुको पीटता है, उसे पाचित्तिय है। ७५----जो कोई भिक्षु कुपित, असंतुष्ट हो (दूसरे) भिक्षुको ( मारनेका आकार दिख- लाते हुए) धमकावे, उसे पाचित्तिय है । (३०) संघादिसेसका दोपारोप ७६–जो कोई भिक्षु ( दूसरे ) भिक्षुके ऊपर निर्मूल संघादिमेस ( दोप)का लांछन लगाये, उसे पाचित्तिय है। (३१) भिक्षुको दिक् करना -यदि कोई भिक्षु ( दूसरे ) भिक्षुको और नहीं सिर्फ इसी मतलबसे कि इसको क्षण भर वेचैनी होगी जान बूझकर संदेह उत्पन्न करे, उसे पाचित्तिय है। -यदि कोई भिक्षु-दूसरे नहीं सिर्फ इसी मतलवसे कि जो कुछ यह कहेंगे उसे सुनूँगा-कलह करते, विवाद करते, झगड़ते भिक्षुओंके ( झगड़ेको सुननेके लिये ) कान लगाता है, उसे पाचित्तिय है। (३२) सम्मति-दान ७९-यदि कोई भिक्षु धार्मिक कर्मों के लिये अपनी सम्मति ( छन्द ) देकर पीछे मुकर जाता है, उसे पाचित्तिय है । -यदि कोई भिक्षु, संघके फैसला करनेकी वातमें लगे रहते वक्त विना (अपना) छन्द (=सम्मति=vote ) दियेही आसनसे उठकर चला जाय, उसे पाचित्तिय है । ८१–जो कोई भिक्षु सारे संघके साथ ( एकमत हो ) चीवर देकर पीछे पलट जाता है-मुँह देखी करके ( यह ) भिक्षु लोग संघके धनको वाँटते हैं-उसे पाचित्तिय है। (३३) सांधिक लाभमें भाँजी मारना ८२-जो कोई भिक्षु जानते हुए संघके लिये मिले हुए लाभको ( एक ) व्यक्ति ( के लाभके रूपमें ) परिणत कराये, उसे पाचित्तिय है। (इति) सहधम्पिक वग्ग ॥८॥ (३४) राजप्रासादमें प्रवेश ८३–जो कोई भिक्षु मृर्दाभिपिक्त (=Sovereign ) क्षत्रिय राजाके (राजप्रासाद)में राजा और रानीके शयनागारसे बाहर न निकले समय, बिना पहिले सूचना दिये इन्द्र-कील' (=इन्दखील)के आगे बड़े, उसे पाचित्तिय है । १ शयनागारका द्वार-स्तंभ ।