पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/७४

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६५।८४-९२ ] ५-पाचित्तिय [ ३१ (३५) बहुमूल्य वस्तुका हटाना ८४-( क ) जो कोई भिक्षु रत्न या रत्नके समान ( पदार्थ )कों श्राराम और सराय (=आवसथ )को छोड़, अन्यत्र लेजाये या लिवाजाये, उसे पाचित्तिय है। ( ख ) रत्न या रत्नके समान ( पदार्थ )को अाराम या श्रावसथमें लेकर या लिवाकर भिन्नुको उसे ( एक जगह ) रख देना चाहिये, कि जिसका होगा वह ले जायगा। यह यहाँ उचित है। (३६) अपरालको गाँवमें जाना ८५-जो कोई भिनु विद्यमान भिक्षुको बिना पूछे विकालमें (=मध्याह्नके बाद) गाँवमें विना किसी वैसे अत्यन्त आवश्यक कामके प्रवेश करे तो पाचित्तिय है। (३७) सूचीघर ८६–जो कोई भिक्षु हड्डो, दन्त या सींगके सूचीघरको बनवाये तो ( उस सूचीघर का ) तोड़ देना पाचित्तिय (=प्रायश्चित्त ) है । (३८) चौकी, चारपाई ८७-नई चारपाई या तख्त (=पीठ )को वनवाते वक्त भिक्षु उन्हें, निचले अोटका छोड़ बुद्धके अंगुलसे आठ अंगुलवाले पावोंका बनवाये । इसके अतिक्रमण करनेपर ( पावोंको नाप करके ) कटवा देना पाचित्तिय है । ८८-जो कोई भिन्नु चारपाई या तख्तको रुई भरकर वनवाये तो उधेड़ डालना पाचित्तिय है। ८९-( बैठनेका श्रासन ) वनवाते समय भिक्षु उसे प्रमाणके अनुसार वनवावे । प्रमाण इस प्रकार है-लंबाई बुद्ध के वित्तेसे दो वित्ता । चौड़ाई डेढ़, और मगजी एक वित्ता । इसका अतिक्रमण करनेपर काट डालना पाचित्तिय (=प्रायश्चित्त ) है । (३०) वस्त्र ९०-खुजलो ढाँकनेके वस्त्र ( लंगोट )को वनवाते समय भिक्षु प्रमाणके अनुसार बनवाये । प्रमाण इस प्रकार है:-सुबुद्धके वित्तेसे चार वित्ता लंवा दो वित्ता चौड़ा । इसका अतिक्रमण करनेपर काट डालना पाचित्तिय (=प्रायश्चित्त ) है । ९१--वर्पाकी लुंगी (=वर्पिक-शाटिका ) वनवाते समय भिक्षु उसे प्रमाणके अनु- सार बनवाये । प्रमाण इस प्रकार है-सुवुद्ध के वित्तेसे लंवाई छः वित्ता, चौड़ाई ढाई वित्ता। इसका अतिक्रमण करनेपर काट डालना पाचित्तिय (=प्रायश्चित्त ) है। ९२-जो कोई भिनु वुद्धके चोवरके वरावर या उससे बड़ा चीवर वनवाये तो काट डालना पाचित्तिय (=प्रायश्चित्त ) है। वुद्धके चीवरका प्रमाण इस प्रकार है-सुगत ( -बुद्ध )के वित्तेन लंबाई नव वित्ता और चौड़ाई छः वित्ता ।... (इति) रतन वग ॥९॥ श्रायुप्माना ! यह वानये पाचित्तिय दोप कहे गये । श्रायुप्मानोंसे पूछता हूँ-क्या (आप लोग ) इनमें शुद्ध हैं ? दुसरी वार भी पृछता हूँ-क्या शुद्ध हैं ? तीसरी वार भी पूछता -क्या शुद्ध हैं । आयुप्मान लोग शुद्ध हैं, इसीलिए चुप है-ऐसा मैं इसे धारण करता हूँ। पाचित्तिय समाप्त ॥५॥ 2