१८-अधिकरण-समथ' (२२१-२७) आयुष्मानो ! ( समय समयपर ) उत्पन्न हुए अधिकरणों ( झगड़ों)के शमनके लिये यह सात अधिकरण-समथ (=झगड़ामिटाव ) कहे जाते हैं- (१) झगड़ा मिटानेके तरीके १-सन्मुख-विनय देना चाहिये । २-स्मृति-विनय देना चाहिये । ३-असूढ़-विनय देना चाहिये । ४-प्रतिज्ञात-करण-(=स्वीकार ) कराना चाहिये । ५-यद्भूयसिक। ६-तत्पापीयसिक। ७–तिणवत्थारक। आयुष्मानों ! यह सात अधिकरण समथ कहे गये । आयुष्मानोंसे पूछता हूँ- आप लोग इनमें शुद्ध हैं ? दूसरी बार भी पूछता हूँ-क्या शुद्ध हैं ? तीसरी बार भी पूछता हूँ-क्या शुद्ध हैं ? आयुष्मान लोग शुद्ध हैं, इसीलिए चुप हैं-ऐसा मैं इसे धारण करता हूँ। अधिकरणसमथ समाप्त ॥८॥ -क्या आयुष्मानो ! निदान कह दिया गया। (१-४) चार पाराजिक दोष कह दिये गये । (५–१७ ) तेरह संघादिसेस दोष कह दिये गये । ( १८-१९) दो अनियत दोष कह दिये गये । ( २०-४९) तीस निस्सग्गिय-पाचित्तिय दोष कह दिये गये। (५०-१४१) वानवे पाचित्तिय दोप कह दिये गये। (१४२-१४५) चार पाटिदेसनिय दोष कह दिये गये । (१४६-२२०) (पचहत्तर) सेखिय वातें कह दो गई । (२२१-२२७) सात अधिक रणसमथ कह दिये गये। इतना ही उन भगवानके सुत्तों (=सूक्तों कथनों) में आये, सुत्तोंद्वारा अनुमोदित (नियम हैं, जिनकी कि) प्रत्येक पन्द्रहवें दिन आवृत्ति की जाती है। उनको (हम) सवको एकमत हो परस्पर अनुमोदन करते-विवाद न करते, सीखना चाहिये। इति । भिक्खु-पातिमोक्ख समाप्त १ अधिकरणसमथोंके अर्थ-विस्तारके बारेमें देखो चुल्लवग्ग शमथस्कन्धक ४ । [ ६८।१-७
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