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पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/८७

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६२-संघादिसेस (१-२५) आर्याभो ! यह सत्रह दोष संघादिसेस कहे जाते हैं- (१) पुरुषोंके साथ विहरना १-जो भिक्षुणी घुमन्त होकर गृहस्थ, गृहस्थ के पुत्र, दास या मजदूरके साथ अन्ततः श्रमण परिव्राजकके साथ भी विहरे तो यह भिक्षुणी भी प्रथम ( श्रेणीके ) दोप को अपराधिनी है । और ( उसके लिये ) संघादिसेस है निकाल देना । (२) चोरनी या बध्याको भिक्षुणी बनाना १-जो भिक्षुणी राजा, संघ', गण, पूग, श्रेणी' को विना सूचित किये- जानकर प्रकट चोरनी या बध्याको-( दूसरे मतमें ) साधुनी बनी हुईको छोड़-साधुनी बनावे, वह भिक्षुणी भी । (३) अकेले घूमना ३–जो भिक्षुणी अकेली प्रामान्तरको जावे, अकेली नदी पार जावे, अकेली रात को प्रवास करे, ( या ) गणसे अलग चली जावे, वह भिक्षुणी भो । (४) संघसे निकालीको साथिन बनाना ४–जो भिक्षुणी सारे संघद्वारा धर्म, विनय और बुद्धोपदेशसे अलगको गई भिक्षुणीको कारक-संघ ( = संघको कार्यकारिणी सभा)को विना पूछे, और गणकी रुचि को विना जाने, साथी बनाती है, वह भिक्षुणी भी । (५) कामासक्तिके कार्य ५–जो भिक्षुणी आसक्त हो, आसक्त पुरुपके हाथसे खाद्य, भोज्य अपने हाथसे लेकर खाये, भोजन करे, वह भिक्षुणी भी । ६-जो भिक्षुणी ( दूसरी ) भिक्षुणीको ऐसा कहे-"आर्ये ! चाहे आसक्त हो या अनासक्त, यह पुरुप तेरा क्या करेगा क्योंकि तू तो अनासक्त है ? हाँ ! तो आर्ये ! जो कुछ खाद्य भोज्य यह पुरुप तुझे देता है उसे तू अपने हाथसे लेकर खा, भोजन कर; वह भिक्षुणी भी। ७-किसी भिक्षुणीका किसी स्त्रीकी वातको किसी पुरुषसे या किसी पुरुषकी बात को किसी स्त्रीसे कहना-तू जारी वन, या पत्नी वन, या अन्ततः कुछ ही क्षणोंके लिये ( उसकी वन); वह भिक्षुणी भी० । १ भिक्षुणी-संघ । २ प्रजातंत्र । पुंज, सामूहिक शासन । ४ श्रेणीका शासन । ४४ ] [ ६२।१-७