पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१०४

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तुच्छ आत्मा जाती रहेगी तो धर्म का नाश हो जायगा; और यह सुनकर काँप उठते हैं कि धर्म उसके नष्ट होने ही से अचल हो सकता है। सारी भलाई और अच्छेपन की कुंजी 'मैं' नहीं है, 'तू' है। इसे कौन देखता है कि स्वर्ग-नरक है वा नहीं? कौन विचारता है कि आत्मा है वा नहीं? कौन ध्यान देता है कि कोई निर्विकार है वा नहीं? यहाँ तो संसार है और वह दुःखों से भरा है। इससे भागकर बचो, जैसे भगवान् बुद्धदेव ने किया था। इसके दुःख घटाने की चेष्टा करो वा करते करते मर मिटो। अपने को भुला दो, यही पहली बात सीखने योग्य है; चाहे तुम नास्तिक हो वा आस्तिक, संशयवादी हो वा वेदांती, ईसाई हो वा मुसलमान। यही सबके लिये सीखने की स्पष्ट बात है कि इस छोटे तुच्छ आत्मा का नाश करो और वास्तविक आत्मा को बनाओ।

दो शक्तियाँ अलग अलग समानांतर रूप में काम करती रही हैं। एक कहती है 'मैं', दूसरी कहती है 'मैं नहीं'। उनकी अभिव्यक्ति मनुष्य ही में नहीं है, पशुओं में भी है; और पशुओं की कौन चलावे, छोटे से छोटे कीड़े में भी है। सिंहनी जो मनुष्य के रक्त में अपने पंजे डुबोती है, अपने बच्चों पर दया करती है। अत्यंत पतित मनुष्य जो अपने भाई के प्राण लेने में तनिक भी संकोच नहीं करता, संभवतः अपनी जान पर खेल- कर अपने भूखे बाल-बच्चों को बचाता है। इसी प्रकार सृष्टि भर में दोनों शक्तियाँ साथ साथ कंधे मिलाकर काम कर रही