पर इतना अत्याचार ही किया है। कुरान में यह शिक्षा है कि उस मनुष्य को जो इन उपदेशों को न माने, मार डालना चाहिए; उसे मारना ही दया है। और स्वर्ग में जहाँ सुंदर हूरें और अन्य प्रकार के भोग-विलास हैं, जाने का निश्चित उपाय यही है कि ऐसे अविश्वासियों को मार डालो। जरा सोचो तो सही, ऐसे विश्वास से संसार में कितना रक्तपात हुआ है।
ईसाई धर्म में कम भोंडापन था। उसमें और वेदांत में बहुत कम अंतर हैं। वहाँ भी आपको अद्वैतवाद मिलेगा। पर ईसा ने लोगों के लिये द्वैतवाद का इसलिये उपदेश किया था कि उन्हें सहारे के लिये कुछ स्थूल पदार्थ दे दिया जाय और वे उच्च आदर्श पर पहुँच जायँ। उसी आचार्य्य ने जिसने यह उपदेश किया था कि ‘हमारा बाप जो स्वर्ग में है’ यह भी शिक्षा दी थी कि ‘मैं और मेरा बाप दोनों एक हैं।’ ईसा के धर्म में उपकार और प्रेम था। पर ज्यों ही भोंडापन आया, वह इतनी अधोगति को प्राप्त हुआ कि अरब के आचार्य्य के धर्म से कुछ ही अच्छा रह गया। यह सचमुच भोंडापन था–तुच्छ आत्मा के लिये यह विवाद―“मैं” के साथ यह राग, न केवल इसी जन्म के लिये अपितु यह इच्छा करना कि मरने पर भी वह बना ही रहे! इसको लोग निःस्वर्थता बतलाते हैं; इसे धर्म की जड़ कहते हैं! यदि यही धर्म का मूल है तो ईश्वर ही रक्षा करे! और आश्चर्य्य की बात तो यह है कि जो स्त्री-पुरुष उत्तम ज्ञान लाभ कर सकते हैं, वे यह सोच रहे हैं कि यदि यह
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