पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१०८

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उलझा पड़ा था, काट डाला और काटने की शक्ति मेरे भीतर थी। इसका मुझे निश्चय है कि मेरे जीवन में मेरी एक भी आकांक्षा, चाहे वह ठीक रही हो या गलत, निष्फल नहीं हुई; अपितु मैं अपने पूर्व के भले बुरे कर्मों का फल-खरूप हूँ। मैंने अपने जीवन में अनेक भूलें कीं। पर ध्यान रखिए कि बिना इन भूलों के मैं आज वह न हुआ होता जो हूँ। अतः मुझे संतोष है कि मैंने जो किया, ठीक किया। मेरा यह अभिप्राय कदापि नहीं है कि आप घर जायँ और जान बूझकर भूल करें। इस प्रकार मेरे आशय को उलटा न समझिए। पर बात यह है कि यदि भूल हो जाय तो उस पर भंखो मत। स्मरण रखो कि अंत को सब ठीक हो जायगा। यह अन्यथा हो नहीं सकता। कारण यह है कि अच्छाई ही हमारा स्वरूप है; शुद्धता ही हमारी प्रकृति है। प्रकृति का कभी नाश नहीं होता। हमारी मुख्य प्रकृति सदा बनी रहेगी।

जो बात हमें जानना है, वह यह है कि जिसे हम भूल या बुराई कहते हैं, उसे हम इसलिये करते हैं कि हम निर्बल हैं। हम निर्बल क्यों हैं? इसलिये कि हम अज्ञान हैं। मैं उसे भूल कहता हूँ। 'पाप' शब्द यद्यपि बहुत सुंदर है, पर फिर भी उसमें कुछ ऐसा पुट है कि मुझे भय लगता है। हमें अज्ञान में कौन डालता है? हमी तो। हम अपनी आँख अपने हाथ से ढके हुए हैं और रोते हैं कि अँधेरा है। हाथ हटाइए, प्रकाश ही तो है; सदा से प्रकाश है। यही मनुष्य की आत्मा का