पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/११७

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अच्छा करते हैं; पर जब धर्मोपदेश की बारी आती है, तब वे एशियावालों की बराबरी नहीं कर सकते। एशियावाले सदा से यही करते आ रहे हैं और वे जानते हैं कि उपदेश कैसे किया जाता है। वे बहुत सी कलों से काम नहीं लेते।

मनुष्य जाति के वर्तमान काल के इतिहास में यह एक सच्ची बात है कि संसार के बड़े बड़े धर्म बने हुए हैं, फैलते जा रहे हैं और बढ़ रहे हैं। इसमें एक गूढ़ तत्व है। यदि सर्वज्ञ, दयामय जगत्कर्ता की यही इच्छा होती कि इन धर्म्मों में से एक ही रह जाय और शेष सब नष्ट हो जायँ, तो यह कभी का हो गया होता। यदि यह बात ठीक होती कि इन धर्म्मों में कोई एक ही सच्चा और दूसरे सब मिथ्या है, तो अब तक उसी का राज्य होता। पर सब धर्मों की कभी वृद्धि होती है, कभी ह्रास होता है। अब तनिक इधर ध्यान दीजिए। आपके देश में छःकरोड़ मनुष्य बसते हैं। उनमें केवल दो करोड़ दस लाख भिन्न भिन्न मतों के माननेवाले हैं। अतः यह वृद्धि नहीं है। यदि सब देशों की जन-संख्या पर दृष्टिपात किया जाय तो जान पड़ेगा कि धर्मों में कभी वृद्धि होती है और कभी ह्रास। संप्रदाय सदा बढ़ते जाते हैं। यदि किसी धर्म का यह कथन ठीक होता कि उसमें सत्य ही सत्य है और ईश्वर ने किसी पुस्तक-विशेष में सारे सत्य को लिखकर भर दिया है, तो फिर संसार में इतने धर्म क्यों होते? पचास वर्ष भी नहीं बीतते और एक ही पुस्तक के आधार पर बीस संप्रदाय उठ खड़े