पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१२८

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है। कुछ परवाह नहीं, उनको टुकड़े टुकड़े कर डालो और उन्हें उसी में जैसे हो, भर दो। यदि वे उसमें न आवें, तो उन्हें बुरा- भला क्यों कहा जाय? आज तक मुझे कोई ऐसा संप्रदाय वा उपदेशक नहीं मिला जो तनिक रुककर यह तो पूछता कि भला इसका कारण क्या है कि लोग हमारी बात नहीं सुनते। इसमें संदेह नहीं कि वे लोगों को कोसा करते हैं और कहा करते हैं कि लोग बुरे हैं। पर वे अपने मन में यह नहीं विचारते कि लोग क्यों मेरी बात नहीं सुनते। मैं उन्हें सत्य क्यों नहीं दिखा सकता। मैं उनकी भाषा में क्यों नहीं उपदेश करता। मैं उनकी आँखें क्यों नहीं खोल देता। इसमें संदेह नहीं कि यह उन्हें समझना चाहिए कि यदि लोग मेरी बातें नहीं सुनते,तो इसमें मेरा ही दोष है। पर इसमें वे लोगों का दोष बतलाते हैं। वे अपने संप्रदाय को इतना विस्तृत नहीं बनाते कि सब उसमें आ सकें।

हम देखते हैं कि इस संकुचित-हृदयताका कारण यही है कि अंग अंगी होने का गर्व करता है, परिमित अपरिमित होने की डींग मारता है। भला एक छोटे संप्रदाय की ओर तो देखिए। अभी सौ दो सौ वर्ष हुए, भ्रमशील मनुष्य के मस्तिष्क से उत्पन्न हुआ है; पर फिर भी यह अभिमान कि मुझे ईश्वर के अनंत सत्य का पूरा ज्ञान है। तनिक इस उद्धत्ता को तो देखिए। कहीं ठिकाना है! यदि इससे कुछ प्रकट होता है तो वह यही कि मनुष्य भी कैसे वृथाभिमानी होते हैं। और इसमें आश्चर्य्य