हैं। हम अपनी उँगलियों से जैसे उठाकर खा सकते हैं, आप
वैसे उठाकर नहीं खा सकते। आपके लिये भोजन ही की
आवश्यकता नहीं है, अपनी रीति पर खाने की भी आवश्य-
कता है। आपको न केवल आध्यात्मिक विचार की आवश्य-
कता है, अपितु आपकी रीति के अनुसार ही उसके उपदेश
करने की भी आवश्यकता है। आवश्यकता है कि वे आप ही
की भाषा बोलते हों―जो आपकी आत्मा की भाषा है―और
तभी आपको संतोष होगा। जब कोई ऐसा मनुष्य आता है जो
हमारी भाषा बोलता है और हमारी भाषा में सत्य का उपदेश
करता है, तो वह झट हमारी समझ में आ जाता है और हम
उसे स्वीकार कर लेते हैं। यह नितांत सत्य बात है।
अब इससे स्पष्ट है कि संसार में मनुष्यों के नाना भाँति के विचार होते हैं और धर्म का उन पर कैसा प्रभाव पड़ता है। एक मनुष्य दो तीन बातों को लेकर यह कहने लगता है कि मेरे धर्म से सब मनुष्यों को संतोष हो जायगा। वह संसार में ईश्वर के पशु-संग्रहालय (Menagerie) में एक पिंजरा हाथ में लिए जाता है और कहता है कि ईश्वर और हाथी और सब कुछ जो संसार में है, इसी पिंजरे में समा जायँगे। यहाँ तक कि हाथी को चाहे टुकड़े टुकड़े क्यों न करना पड़े, वह इसमें अवश्य आवे। फिर संसार में कोई ऐसा संप्रदाय भी हो सकता है जिसमें कुछ अच्छे विचार हों। वे लोग यह कहेंगे कि सब इसी के अनुयायी हो जायँ; पर उसमें उनके लिये अवकाश ही नहीं