सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ १३३ ]

सकेगा? इस शताब्दी के अंतिम भाग में संसार में साम्य भाव का प्रश्न उत्पन्न हुआ है। समाज के लिये नए ढंग सोचे गए और उन्हें काम में लाने के लिये अनेक प्रयत्न हुए; पर यह हम जानते हैं कि यह काम कितना कठिन है। जीवन में जो झमेले हैं, उन्हें मिटाना और मनुष्यों की दुर्बलताओं को दबाना लोगों को असंभव जान पड़ता है। यदि संसार में व्यवहार की दशा में शांति और समता का स्थापन करना, जो बाह्य, स्थूल और ऊपरी अवस्था है, इतना कठिन है तो मनुष्य के आभ्यं- तर पर शांति और साम्य भाव स्थापित करना तो इससे सहस्र-गुणा कठिन है। मैं आपसे अनुरोध करूँगा कि थोड़े समय के लिये शब्द के जाल से बाहर निकल आइए और तनिक सोचिए तो सही कि हम लोग बचपन से ही प्रेम, शांति, दान, समदर्शिता और विश्वव्यापी भ्रातृभाव के नाम सुनते आ रहे हैं, पर वे आज तक हमारे लिये अर्थरहित शब्द- मात्र बने रहे हैं। हम उन्हें तोतों की भाँति बिना उनके वाच्यार्थ को समझे हुए कहते आ रहे हैं। ऐसा करना हमारे लिये सहज हो गया है। हम इसे छोड़ नहीं सकते। महात्माओं ने, जिनके हृदय में पहले पहल उत्तम भाव उदय हुए, इन शब्दों की रचना की और तब से अनेकों ने उनके वाच्यार्थों को समझा। उनके पीछे मूखौं ने उन शब्दों को ले लिया और धर्म केवल शब्दों का खेल बन गया, उस कर्तव्य का विषय नहीं रहा। यह हमारे बापदादों का धर्म है, यह हमारा जातीय धर्म