लिये, जिन्हें उनकी अपेक्षा कहीं अधिक अवकाश मिल सकता है, कितना अधिक कर्मण्यता वा व्यवहार का विषय हो सकता है। ऐसी अवस्था में जब हम देखते हैं कि हमें सदा अवकाश ही रहता है, बहुत कम काम करने को रहता है, यह कितनी लज्जा की बात है कि हम उन्हें साक्षात् न कर सकें। इन प्राचीन महाराजाओं की अपेक्षा हमारी आवश्यकताएँ क्या हैं? कुछ भी तो नहीं जान पड़ती। भला यह तो विचारिए कि अर्जुन के सामने जो रणक्षेत्र में बड़ी सेना लिए युद्ध करने को खड़ा था, क्या हमें अधिक अपेक्षा हो सकती है। पर उसे भी तो रणक्षेत्र के निनाद और तुमुल संक्षोभ में इस उच्च विज्ञान को सीखने और आचरण करने का अवकाश मिलता है। इसमें संदेह नहीं कि हमें चाहिए कि हम अपने इस जीवन में इसका अनुष्ठान करें। हम उससे अधिक खच्छंद सुखी हैं, हमें अधिक सुगमता है। हममें कितने लोगों को तो उससे कहीं अधिक अवकाश है जितना कि हमारी समझ में उन्हें होगा; और यदि हम चाहें तो उसे इस अच्छे काम में लगा सकते हैं। जितनी स्वतंत्रता हमें है, उससे यदि हम चाहें तो इस जीवन में दो सौ आदर्शों पर पहुँच सकते हैं, पर यह उचित है कि हम आदर्श को गिराकर वास्तविक अवस्थानुकूल न बना दें। सबसे अधिक लज्जा की बात तो यह है कि ऐसे लोग भी देख पड़ते हैं जो अपनी भूलों पर बार बार बातें गढ़ते रहते हैं। ऐसे लोगों से हमें अपनी सारी निरर्थक आवश्यकताओं और निष्प्रयोजन
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