सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ ११ ]

इच्छाओं के लिये नाना प्रकार की बातें बनाने और हेतु गढ़ने की शिक्षा मिलती है। और हम तो समझते हैं कि उनका आदर्श वही है जिसकी उन्हें आवश्यकता जान पड़े। पर यह ठीक बात नहीं है। वेदांत हमें ऐसी बात की शिक्षा नहीं देता है। वास्तविक अवस्था को आदर्श के अनुसार होना चाहिए, वर्त- मान जीवन शाश्वत जीवन के अनुसार होना चाहिए।

आप यह सदा स्मरण रखें कि वेदांत का मुख्य आदर्श एकता है। यहाँ दो पदार्थ, दो जीवन हैं ही नहीं; और दो लोकों के लिये दो भिन्न प्रकार के जीवन हैं। आप देखेंगे कि वेदों में पहले स्वर्ग और उसी प्रकार की अन्य बातों का उल्लेख मिलता है। पर जब वही वेद दर्शन के उच्च आदर्शों पर पहुँचते हैं, तब उन्हीं में सब पर हरताल फिर जाता है। फिर एक ही आत्मा, एक ही लोक और एक ही सत्ता रह जाती है। सब वही एक ही है। भेद केवल मात्रा का है, प्रकार का नहीं है। हमारे जीव में प्रकार का अंतर नहीं है। वेदांत ऐसी बातों का समूल निषेध करता है कि पशु-पक्षी और हैं और मनुष्य और हैं; और ईश्वर ने पशु-पक्षियों को खाने के लिये उत्पन्न किया है।

कुछ लोगों ने ऐसी समिति स्थापित की है जिसका उद्दश यह है कि विज्ञानसंबंधी परीक्षाओं के लिये प्राणियों का घात न किया जाय। मुझे स्मरण आता है कि मैंने एक बार ऐसी ही समिति के सभ्य से पूछा कि भला आप यह तो बतलाइए कि यह कहाँ तक ठीक है कि मांस खाने के लिये तो प्राणियों की हिंसा उचित