पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१६७

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करते और उसके साथ प्रेम करते हैं। उनके लिये उनका ईश्वर रहने दीजिए। आपके युक्ति-प्रमाणवादी, उन्हें मूर्ख के समान जँचते हैं जो उनकी सुंदर मूर्तियों को पाकर उसे तोड़ फोड़कर यह देखने की चेष्टा करते रहते हैं कि वे किस पदार्थ से बनी हैं। भक्ति योग यह शिक्षा देता है कि बिना किसी फलोद्देश के ईश्वर की कैसे भक्ति की जाय। ईश्वर के साथ प्रेम करना सौंदर्य्य के साथ प्रेम करना है, इसलिये कि प्रेम करना अच्छी बात है, इसलिये नहीं कि हम स्वर्ग जायँ, इसलिये नहीं कि पुत्र धनादि मिले। इससे उनको यह शिक्षा मिलती है कि प्रेम का उत्तम फल प्रेम ही है―ईश्वर उनके लिये प्रेम स्वरूप है। यह उन्हें इस बात की शिक्षा देता है कि ईश्वर में सब गुणों का आरोप करो; वही स्रष्टा है, वही सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान्, शासक, माता, पिता सब कुछ है। सबसे श्रेष्ठ वाक्य जिसे उसका बोध हो सकता है, सबसे उत्तम भाव जो उसमें उसके संबंध में उत्पन्न हो सकता है, यह है कि ईश्वर प्रेम का ईश्वर है। जहाँ प्रेम है, वहाँ वह है। जहाँ प्रेम है, वहाँ वही है, वही भगवान् है। जहाँ पति पत्नी का चुंबन करता है, वहाँ वही चुंबन रूप में है; जहाँ माता अपने बालक का चुंबन करती है, वहाँ भी चुंबन के रूप में वही है। जहाँ मित्र अपने मित्र को आलिमन करता है, वहाँ भगवान् उपस्थित हैं-वहीं प्रेम- मय ईश्वर हैं। जहाँ कोई महापुरुष मनुष्य जाति से प्रेम करता है और उसे सहायता देता है, वहाँ भगवान ही उपस्थित हैं

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