प्रवार रहा है। जिन संप्रंदायों में ईश्वर को बिना किसी क्रिया-
कलाप और प्रतीक के उपासना करने का प्रयत्न हुआ है, उनमें
लोगों ने उन सारी बातों को जो धर्म में भावोत्पादक और मनो-
हर हैं, नष्ट कर डाला है। उनका धर्म धर्मोन्माद मात्र है, सूखा
है। संसार का इतिहास इसकी स्पष्ट साक्षी दे रहा है। इस
लिये क्रिया-कलापों और पुराणों की निंदा मत कीजिए।
लोगों को उन्हें काम में लाने दीजिए। जिनकी इच्छा हो, उन्हें
रोकिए मत। घृणा से मुँह न बनाइए और यह कभी मत
कहिए कि वे मूर्ख हैं, उन्हें मानने दो। बड़े लोग, जिन्हें मैंने
अपने जीवन में देखा है और जो बड़े प्रबल आध्यात्मिक शक्ति-
संपन्न थे, सब इसी कर्मकांड के अनुष्ठान से इस योग्य हुए थे।
मैं तो उनके चरणरज के बराबर भी नहीं हूँ। फिर उनकी निंदा
करने की तो बात ही और है। भला मैं यह कैसे जान सकता
हूँ कि इन भावों का प्रभाव मनुष्य के अंतःकरण पर कैसे पड़ता
है। मैं तो यह नहीं समझ सकता कि मैं किसको मानूँ और
किसको छोडूँँ। हमारा स्वभाव पड़ गया है कि संसार में सब
बातों का बिना भली भाँति समझे बूझे खंडन किया करते हैं।
लोगों को सारे पुराणों को, उनमें जो सुंदर अवभास हैं, उन सब
को मानने दीजिए। आप अपने मन में यह बात समझ रखिए कि
वैकारिक प्रकृति सत्य के सूक्ष्म लक्षणों पर अधिक ध्यान नहीं
दे सकती। सच्ची बात तो यह है कि ईश्वर उनके विचार में
कोई स्थूल और व्यक्त पदार्थ है। वे उसे देखते, सुनते, स्पर्श
पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१६६
दिखावट
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ १६० ]