सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ १६५ ]

मैं तुम्हें विश्व की आत्मा बतलाता था, जो अणु में, सूर्य्य में और चंद्र में है, वही हमारी आत्मा का आधार है, हमारी आत्मा की भी आत्मा है; नहीं, वह तू ही है। यही ज्ञानयोग का उपदेश है। यह मनुष्यों को बतलाता है कि वे ईश्वर ही हैं। इससे मनुष्यों को सत्ता की एकता का बोध होता है और इसका ज्ञान हो जाता है कि सब ईश्वर ही हैं जो इस पृथ्वी पर विग्रह- वान हैं। छोटे कीड़े से लेकर जो हमारे पैरों के नीचे पड़ता है, उच्च से उच्च सत्ता तक जिसे हम आदर और महत्व की दृष्टि से देखते हैं, सब ईश्वर ही के विग्रह मात्र हैं।

अंत को यह आवश्यक है कि ये योग व्यवहार में लाए जायँ; केवल सिद्धांत ही सिद्धांत से काम न चलेगा। पहले हमें उनका श्रवण करना चाहिए, फिर मनन। हमें फिर उन विचारों पर तर्क करके अपने मन में उनको अंकित करना चाहिए। फिर उनका निदध्यासन वा ध्यान द्वारा साक्षात् करना चाहिए। तब वे हमारे जीवन बन जायँगे। फिर धर्म विचार वा सिद्धांत की गठरी न रह जायगा, न वह युक्ति और तर्क का विषय रहेगा; वह हमारी आत्मा में प्रवेश कर जायगा। बुद्धि के आधार पर तो आज हम बहुत सी व्यर्थ बातों को स्वीकार कर लेंगे, पर कल ही हमारी बुद्धि बदल जायगी। पर सत्यधर्म कभी बद- लता ही नहीं। धर्म साक्षात्कार का नाम है; वह वकवास, वा विचार का विषय नहीं है, चाहे कितना ही सुंदर क्यों न हो। यह करने कराने की बात है, सुनने और मानने की बात नहीं