पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१७२

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है। पर यह वह है जिसमें सारी आत्मा बदलकर वही हो जाती है जो उसका विश्वास है। यही धर्म है।



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(२३) प्रकट रहस्य।
(लेस ऐंजिलिस, केलिफोर्निया)

पदार्थों के तत्व को समझने के लिये हम जिधर दृष्टिपात करते हैं, उधर ही यदि हम अच्छी तरह छानवीन करते हैं तो विलक्षण दशा दिखलाई पड़ती है―स्पष्ट विपरीत बात जिसे हमारा तर्क भले ही स्वीकार न करे, पर बात है सच्ची। हम जिसे लेते हैं, वह हमें परिमित जान पड़ता है; पर ज्यों ही हम उसका विश्लेषण करते हैं, वह हमारी बुद्धि के बाहर चला जाता है। हमें उसके गुणों का पारावार ही नहीं मिलता; हमें उसकी संभावनाओं, उसकी शक्तियों और उसके संबंधों का अंत ही नहीं जान पड़ता। वह अपरिमित हो जाता है। एक साधारण फूल को लीजिए, वह कितना छोटा जान पड़ता है। पर ऐसा कौन है जो यह कह सके कि मुझे उस फल की सारी बातों का ज्ञान है? यह संभव नहीं है कि कोई एक फूल के संबंध में ज्ञान के पारावार को पहुँच सके। वही फूल जो पहले परिमित था, अब अपरिमित हो गया। बालू के एक कण को ले लीजिए। उसकी छानबीन कीजिए। हम उसे परिमित ही मानकर उसकी छानबीन में प्रवृत्त होते हैं; पर अंत को हमें जान पड़ता