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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१७६

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फूल के लिये है, बालू के कण के संबंध में है, भौतिक जगत् और प्रत्येक विचार के संबंध में है, वही सौगुनी होकर हमारे संबंध में संघटित है। हम उसी सत्ता के चक्कर में पड़े हैं। जो कभी परिमित और कभी अपरिमित जान पड़ती है। हम समुद्र की लहर के तुल्य हैं। लहर समुद्र भी है और समुद्र नहीं भी है। लहर में कोई ऐसा अंश ही नहीं जिसे हम समुद्र न कह सकें। ‘समुद्र’ शब्द के वाच्य में लहर और समुद्र के अन्य भाग सब आ जाते हैं। पर फिर भी वह समुद्र से अलग ही है। इसी प्रकार इस अनंत सागर में हम लहर के समान हैं। पर जब हम अपने को ग्रहण करना चाहते हैं, तो नहीं कर सकते; हम अनंत हो जाते हैं।

हमारा जीवन स्वप्न के समान है। खप्न-दशा में स्वप्न सत्य रहता है; पर ज्यों ही आप उसमें एक को भी ग्रहण करना चाहते हैं, वह भाग जाता है। क्यों? इसलिये नहीं कि स्वप्न मिथ्या है, इसलिये कि उसका समझना हमारे तर्क और बुद्धि के अधिकार के बाहर है। इस जीवन की सारी बातें इतनी बड़ी हैं कि बुद्धि उनके सामने अति तुच्छ है। वे बुद्धि में आ नहीं सकतीं। वे उस जाल पर हँसती हैं जिसमें बुद्धि उन्हें फँसाना चाहती है। और इससे सहस्रों गुनी कठिन मनुष्य की आत्मा की बात है। हम स्वयं इस विश्व के सबसे बड़े रहस्य हैं।

यह कितने आश्चर्य की बात है। मनुष्य की आँख को