पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ १७३ ]


साथ कुछ संबंध अवश्य था। नए नए अवभास हुए, नए नए विचार पाए और ज्ञान आगे बढ़ा। वह धीरे धीरे उस ईश्वर के पास पहुँचने लगा; और अंत को उसे यह जान पड़ा कि ईश्वर और सब देवता, यही सारी आध्यात्मिक बातें जो एक सर्वशक्तिमान् की खोज में देखने में आई हैं, केवल उसीके संबंध के भावों के प्राभास मात्र थे। और फिर अंत को इसका निश्चय हो गया कि यह बात ठीक नहीं है कि ईश्वर ने मनुष्य को अपने रूप के अनुसार बनाया। अपितु सच्ची बात यह है कि मनुष्य ने ईश्वर को अपने रूप के अनुसार बना लिया है। इससे उसमें दैवी स्वतंत्रता के भाव का संचार हुआ। ईश्वर उससे सदा समीप से भी समीप था। उसी को हम इधर-उधर ढूँढ़ रहे थे। पर अंत को हमें यह जान पड़ा कि वही हमारी आत्मा की आत्मा है। आपको वह कहानी याद होगी कि एक मनुष्य ने अपने हृदय के धड़कने को यह समझा था कि कोई उसके द्वार पर हाथ मार रहा है। वह दौड़ा हुआ द्वार पर आया और द्वार खोला तो देखा, वहाँ बाहर कोई नहीं था और वह आकर लौट गया। उसे फिर खटखटाहट सुनाई पड़ी। उसे द्वार खोलने पर जान पड़ा, वहाँ कोई नहीं है और अंत को उसे जो जान पड़ा कि उसके हृदय की धड़कन थी जिसे उसने द्वार की खटखटाहट समझा था। इसी प्रकार बड़ी खोज के बाद उसे इसका पता चला कि वह अनंत स्वतंत्रता जिसे वह अपनी कल्पना से सदा बाहर समझता