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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१८२

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आया था, भीतर ही है। वह उसको आत्मा की नित्य आत्मा है; और वह वही सत्ता है।

इस प्रकार अंत को उसे सत्ता के इस अद्भुत द्वैत का ज्ञान हुआ, अर्थात् यह कि अनंत और सांत एक ही में है; वह अनंत सत्व भी वही है जो सांत आत्मा है। वही अनंत जब बुद्धि के जाल में फँस जाता है, तब सांत दिखाई पड़ता है; पर वास्तव में वह अनंत रहता है।

अतः यही सत्य ज्ञान है कि हमारी आत्मा की आत्मा, वह सत्ता जो हमारे भीतर है, वही है जो निर्विकार, नित्य, आनंदधन और सदा मुक्त है। यही हमारा दृढ़ आधार है। यही सारी मृत्युओं का अंत है। यही सारी अमरता का मार्ग है। यही सारे दुःखों का अंत है। वह जो एक को बहुतों में देखता है, वह जो विकार में निर्विकार को देखता है, वह जो उसे आत्मा को भी आत्मा के रूप में देखता है, उसी को शाश्वत शांति है, दूसरे को नहीं।

सारे दुःखों और पतनों के भीतर से आत्मा प्रकाश की किरण फेंकता है और मनुष्य जागकर यह देखता है कि जो सचमुच मेरा है, वह कभी जा नहीं सकता। नहीं, जो सचमुच हमारा है, हम उसे कभी त्याग नहीं सकते। भला अपनी सत्ता को कौन खो देगा? कौन अपने स्वरूप को त्याग सकता है? यदि मैं भला हूँ तो पहले मेरी सत्ता है, फिर वही भलाई के रंग में रँगो गई है। यदि मैं बुरा हूँ, तो सत्ता पहले है और