पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१८४

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मैं कई बार मृत्यु के मुँह में पड़ चुका हूँ, भूखों मरा हूँ, मेरे पैरों में घाव हो गए हैं और थककर पड़ रहा हूँ। मुझे सप्ताहों भोजन नहीं मिला है, और प्रायः मैं आगे नहीं जा सका। मैं पेड़ के नीचे पड़ा रहा हूँ और मुझे जीवन दूभर हो गया है। मुझ से बोला तक नहीं गया है; मेरी बुद्धि कम काम करने लगी है। पर अंत को मेरे मन में यही आया है कि “मुझे न कोई भय है और न मृत्यु है; न मुझे भूख है, न प्यास है; मैं वह हूँ। सारी प्रकृति भी मुझे नष्ट नहीं कर सकती। वह मेरी दासी है। देव देव महेश्वर अपनी शक्ति को काम में ला। अपने खोए हुए राज्य को ले ले। उठ और चल, ठहर मत।” और मैं उठा, मुझमें फिर शक्ति का संचार हो गया और यह देखिए, मैं जीता जागता आज यहाँ खड़ा हूँ। इसी प्रकार जब जब अंध- कार आवे, अपनी शक्ति का संचार करो; सारी बाधाएँ भाग जायँगी। अंत को यह भी स्वप्न है। यद्यपि पर्वत के बराबर भयानक विपत्ति क्यों न फट पड़े और चारों ओर अंधकार ही अंधकार क्यों न छा जाय, पर वह सब माया ही हैं। डरो मत, और वह निकल गई। उसे दबा दो, वह नष्ट हो जायगी। कुचल दो, वह मर जायगी। डरो मत। इसकी चिंता न करो कि कितनी बार तुम्हें विफलता होगी। इस पर ध्यान न दो। काल अनंत है। आगे बढ़ो; बार बार प्रयत्न करते जाओ। तुम्हें अमरत्व प्राप्त होगा। आप सबके सामने जो संसार में उत्पन्न हुए है, भले ही हाथ जोड़ते फिरें, पर आपकी सहायता कौन