पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१८५

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करने आवेगा? उस मौत की क्या चिंता जिससे कोई बचता ही नहीं? अपनी सहायता आप करो। मित्र, आपकी सहा- यता दूसरा कोई न करेगा। आप ही अपने बड़े शत्रु हैं, आप ही अपने बड़े मित्र हैं। फिर अपनी आत्मा को पकड़ो। अपने पैरों पर खड़े हो। डरो मत। सारे दुःखों और सारी निर्बल- ताओं में अपनी आत्मा को निकालो, वह कितनी ही अस्पष्ट और अव्यक्त क्यों न हो। आप में अंत को साहस आ ही जायगा और आप सिंहवत् गरज उठेंगे―‘सोऽहम्’ ‘सोऽहम्।’ न मैं स्त्री हूँ, न पुरुष हूँ, न देव हूँ, न दैत्य हूँ, न मैं पशु हूँ न वृक्ष, न बनस्पति हूँ; न मैं धनी हूँ, न निर्धन हूँ, न विद्वान् हूँ, न मूर्ख हूँ। मेरी अपेक्षा यह सब कुछ नहीं है क्योंकि मैं वह हूँ, मैं वह हूँ। सूर्य्य, चंद्र और ताराओं को देखो, मैं वह ज्योति हूँ जो उनमें चमक रही है। अग्नि में तेज रूप मैं ही हूँ, विश्व में शक्ति मैं ही हूँ; क्योंकि मैं वह हूँ, मैं वह हूँ।

जो कोई यह समझता है कि मैं छोटा हूँ, वह भूलता है; क्योंकि जो कुछ है, सब आत्मा ही है। सूर्य्य की सत्ता इसलिये है कि मैं यह स्वीकार करता हूँ कि वह है, क्योंकि मैं ही सत्, चित् और आनंद हूँ―नित्यानंद, नित्य शुद्ध और सदा शुभ- दर्शन। देखो, सूर्य्य हमारे देखने का कारण है। पर यदि किसी की द्दाष्ट में दोष हो तो सूर्य्य का कोई दोष नहीं है। वैसे ही मैं भी हूँ। मैं सब अंगों से, सबसे काम कर रहा हूँ; पर कर्म के सुभाशुभ का प्रभाव मुझ पर नहीं पड़ता। मेरे लिये कोई विधि

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