पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१९४

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स्थूल इंद्रियाँ हैं जिनसे हमें दीवार और पुस्तकादि का बोध होता है। पर सत्य के जानने के लिये अत्यंत सूक्ष्म इंद्रिय की आवश्यकता है। यही सारे ज्ञान का रहस्य है। फिर यमराज कहते हैं कि इसके लिये अत्यंत शुद्धता की आवश्यकता है। यही इंद्रियों के सूक्ष्म होने का ढंग है। फिर हमें और रीतियाँ भी बतलाई गई हैं। वह नित्य ब्रह्म इंद्रियों से परे है। इंद्रियों से तो बाह्य विषय का बोध होता है; पर नित्यात्मा का बोध आभ्यंतर में होता है। आप देखते हैं कि किन बातों की आवश्यकता है, अर्थात् आंंतरिक दृष्टि करके आत्मा को देखने की इच्छा की। जो कुछ सुंदर पदार्थ संसार में देख पड़ते हैं, सब अच्छे हैं। पर ईश्वर के देखने का यह ढंग नहीं है। हमें यह सीखना चाहिए कि कैसे अंतर्दृष्टि होती है। आँखों से बाहर देखने की इच्छा कम करनी चाहिए। जब आप नगर की सड़क पर चलते हैं, तब गाड़ियों की खटखटाहट से साथ चलनेवालों की बात सुनना कठिन हो जाता है। न सुन पड़ने का कारण यह हैं कि अधिक शब्द होता है। मन बाहर जा रहा है, आप पास के मनुष्य की बातें नहीं सुन सकते हैं। इसी प्रकार इस संसार में इतना अधिक घोर शब्द हो रहा है कि मन बाहर भागता रहता है। हम आत्मा को देखें तो कैसे देखें? बाहर का जाना बंद करना चाहिए। दृष्टि को भीतर लौटाने का यही अर्थ है। तभी भीतर ईश्वर का प्रकाश देख पड़ेगा।

यह आत्मा है क्या? हम देख चुके हैं कि वह बुद्धि से परे