पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ १८७ ]

है। उसी उपनिषद् से हमें यह भी जान पड़ता है कि वह नित्य और सर्वव्यापी है; आप और मैं और सब लोग सर्व- व्यापी हैं; और आत्मा निर्विकार है। अब यह सर्वव्यापी कोई एक ही होगा। दो पदार्थ नित्य हो नहीं सकते और फलतः यह आवश्यक है कि संसार में केवल एक ही आत्मा हो। आप, मैं और सारा विश्व सब एक ही हैं और अनेक देख पड़ते हैं। जिस प्रकार एक ही अग्नि विश्व में प्रविष्ट होकर भिन्न भिन्न रूप में दिखाई पड़ती है, वैसे ही सारे विश्व का एक आत्मा है जो भिन्न भिन्न रूपों में व्यक्त हो रही है। अब प्रश्न यह है कि यदि यह आत्मा पूर्ण और शुद्ध है और विश्व में एक ही है, तो फिर जब वह अशुद्ध के शरीर में, पापी के शरीर में, पुण्यात्मा के वो और के शरीर में जाती है तो उसे क्या हो जाता है। वह फिर पूर्ण कैसे रही? सबकी आँखों की दृष्टि का कारण सूर्य्य है। पर उस सूर्य्य में किसी की आँख के दोष से दोष नहीं आता। यदि किसी की आँख में पीलू रोग है, तो उसे सब पीला ही दिखाई पड़ता है। उसकी दृष्टि का कारण सूर्य्य तो है, पर उसे सब पीला दिखाई पड़ता है। इससे सूर्य्य से कोई संपर्क नहीं है। ऐसे ही यह एक आत्मा यद्यपि सबका आत्मा है, फिर भी उससे बाहरी शुद्धि वा अशुद्धि का कोई संपर्क नहीं होता। इस संसार में जहाँ सब पदार्थ क्षणिक वा अस्थायी हैं, जो उस निर्विकार को जानता है, इस जड़ जगत् में जो उस चेतन को जानता है, इस अनेकता में जो उस एक को जानता है और