पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१९८

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किया था कि आत्मा उसी अनंत ब्रह्म का अंश मात्र है। जैसे यह शरीर एक छोटा जगत् है, उसके भीतर मन है, उसके भीतर प्रत्यगात्मा है, उसी प्रकार यह विश्व शरीर है। उसके परे महत्तत्व है और उसके परे विश्वात्मा है। जैसे यह शरीर विश्व के पिंड का एक अंश है, वैसे ही यह प्रत्यगात्मा उस विश्वात्मा का अंश विशेष है। इसी को विशिष्टाद्वैत कहते हैं। अब हम जान गए कि विश्वात्मा अनंत है। फिर अनंतता का अंश कैसे हो सकता है? इसके टुकड़े टुकड़े और विभाग कैसे होंगे? काव्य की दृष्टि से तो यह कहना बहुत ही अच्छा है कि मैं उसी अनंत की एक चिनगारी हूँ, पर यह मत विचार से ठीक नहीं जान पड़ता। अनंत के विभाग करने का क्या अर्थ है? क्या वह भी भौतिक है कि हम उसके खंड खंड कर सकेंगे? अनंत का भाग हो नहीं सकता। यदि यह संभव हो तो फिर वह अनंत काहे को रहेगा? फिर इसका प्रतिफल क्या निकला? उत्तर यही है कि आप ही विश्वात्मा हैं, आप अंश नहीं हैं, अपितु पूर्ण हैं। आप पूर्ण ब्रह्म हैं। फिर प्रश्न यह है कि विभिन्नता क्यों है? हमें तो करोड़ों प्रत्यगात्माएँ मिलती हैं। वे हैं क्या? उत्तर यही है कि करोड़ों जल पूर्ण घड़े हैं और सब में सूर्य्य का पूर्ण प्रकाश पड़ता है, सब में पूरी छाया देख पड़ती है। पर वे हैं तो छाया ही, वास्तविक सूर्य्य तो एक ही है न। इसी प्रकार यह प्रत्यगात्मा ब्रह्म की छाया है; इसके अतिरिक्त कुछ अन्य नहीं है। जो वास्तविक