में खोज होती रही और जब उन्हें वहाँ कुछ न मिला, तब अंत को जैसा वेदों से जान पड़ता है, उनको स्वयंभू की खोज में भीतर दृष्टि डालनी पड़ी। वेदों का मुख्य विचार यह है कि ताराओं में, नीहारिका में, आकाशगंगा में, यहाँ तक कि सारे बाह्य विश्व में खोजने से कुछ लाभ नहीं है। इससे जन्म मरण के प्रश्न का समाधान नहीं होता। इसी से अपने भीतर के अद्भुत यंत्र का विश्लेषण करना पड़ा और उसी से उनको विश्व के उस रहस्य का ज्ञान हुआ जिसे सूर्य्य और नक्षत्रादि से वेन प्राप्त कर सके थे। इसके लिये विश्लेषण की, चीर-फाड़ की आवश्यकता थी; पर शरीर की चीर-फाड़ की नहीं अपितु आत्मा के विश्लेषण की। उसी आत्मा में उन्हें उस प्रश्न का उत्तर मिला। पर वह उत्तर उन्हें कौन सा मिला? यही कि शरीर से परे, मन से परे वह स्वयंभू है। न वह मरता है और न जन्म लेता है। वह खयंभू सर्वव्यापक है; कारण यह कि उसके रूप नहीं है। जिसके रूप नहीं, जो देश काल से बद्ध नहीं, वह एकदेशी नहीं हो सकता। यह हो कैसे सकता है? वह सर्वव्यापक है, हम सब में समान रूप से व्याप्त हो रहा है।
फिर मनुष्य की आत्मा है तो क्या है? एक पक्ष के लोगों की धारणा थी कि एक तो ईश्वर है और उस ईश्वर के अति अनंत आत्माएँ हैं जो भाव में, रूप में और सारी बातों में ईश्वर से पृथक हैं! यही द्वैतवाद है। यही पुराना, प्राचीन और भोंडा विचार है। दूसरे पक्षवालों ने इस प्रश्न का यह समाधान