पड़ता है कि एक छोटे अंश के द्वारा उपलब्ध होता है। यहाँ तक कि जब पत्नी पति के साथ प्रेम करती है, तब चाहे वह इसे जाने वा न जाने, वह पति से आत्मा के लिये प्रेम करती है। यह स्वार्थ इसलिये है कि यह संसार में व्यक्त होता है, पर यह स्वार्थ सचमुच उस स्वार्थ का एक तुच्छ अंश है। जब कोई प्रेम करता है, तब वह उसी आत्मा के द्वारा करता है। यह आत्मा जानने योग्य है। भेद क्या है? जो आत्मा का प्रेम बिना यह जाने करता है कि वह क्या है, उसी का प्रेम स्वार्थ है। जो यह जानकर कि आत्मा क्या है उससे प्रेम करता है, वही मुक्त है; वही ऋषि है। “उसीको ब्राह्मण त्याग देता है जो ब्राह्मण को आत्मा से पृथक् देखता है। उसीको क्षत्रिय त्याग देता है जो क्षत्रिय को आत्मा से पृथक् देखता है। संसार उसे त्याग देता है जो संसार को आत्मा से अलग देखता है। जो सबको आत्मा से पृथक् जानता है, उसके लिये सब चले जाते हैं। यह ब्राह्मण, यह क्षत्रिय, यह संसार, ये देवता जो कुछ हैं, सब कुछ वही आत्मा ही हैं।” इसी प्रकार उसने यह बतलाया कि प्रेम से उसका अभिप्राय क्या है। जब हम किसी वस्तु को विशेषता देते हैं, हम उसे आत्मा से पृथक् मानते हैं। मान लीजिए कि मैं किसी स्त्री से प्रेम करना चाहता हूँ। ज्यों ही उस स्त्री को विशेषता दी गई, वह आत्मा से अलग की गई। मेरा प्रेम शाश्वत न रहा और उसका अंत दुःख होगा। ज्यों ही मैं देखता हूँ कि वह स्त्री आत्मा है, मेरा वह प्रेम पक्का हो जाता है और दुःख
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