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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२०४

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नहीं होता। यही दशा सबकी है। ज्यों ही आपको विश्व की किसी वस्तु से राग होता है, आप उसे विश्व से अलग करते हैं, आत्मा से अलग करते हैं; फिर वेदना उत्पन्न होती है। प्रत्येक वस्तु का जिसके साथ हम उसे आत्मी से अलग जानकर प्रेम करेंगे, परिणाम दुःख और शोक होगा। यदि हम प्रत्येक में उसे आत्मा मानते हुए भोग करें तो दुःख वा वेदना न होगी। यही पूर्ण आनंद है। इस आदर्श पर पहुँचें कैसे? याज्ञवल्क्य आगे चलकर हमें यह बतलाते हैं कि हमें वह दशा कैसे प्राप्त हो सकती है। विश्व तो अनंत है। हम कैसे प्रत्येक वस्तु को लेकर उसको बिना आत्मा के जाने हुए आत्मा समझें? ‘जैसे दुंदुभी से जब तक हम दूर हैं, हम शब्द को ग्रहण नहीं कर सकते; पर ज्यों ही हम दुंदुभी के पास पहुँचते हैं और उस पर थाप देते हैं, शब्द हमारे वश में हो जाता है। जब शंख बजता रहता है, हमें ध्वनि पर अधिकार नहीं रहता। जब हम शंख के पास जाते हैं और उसे हाथ में लेते हैं, तभी उसका बजाना हमारे वश में होता है। बीन बजाने में जब हम बीन के पास पहुँचते हैं और उसे उठाकर बजाते हैं, तभी उससे शब्द होता है। जैसे कोई गीली लकड़ी जला रहा है। उससे वर्ण वर्ण के धूएँ और चिनगारियाँ निकलती हैं। इसी प्रकार उस महाभूत से ज्ञान निकलते हैं। सब उसीसे निकले हैं। मानो सारे ज्ञान उसकी साँस के समान निकले हैं। इसी प्रकार सारे जल की गति समुद्र में है, सारे स्पर्श का केंद्र त्वचा है, सारे गंध का नासिका,