गूँँज रहे हैं। किसके द्वारा हम विश्व को जानें? किससे उसे
जानें? जाननेवाले को जानें कैसे? क्योंकि उसीसे और उसी
के द्वारा हम सबको जानते हैं। किससे हम उसे जानें? कुछ
कारण तो है ही नहीं। वही वह करण है। उसी करण का
जानना सदा आवश्यक है।
यहाँ तक तो यही बात है कि सब अनंत आत्मा हैं। वही वास्तविक व्यक्तिता है जिसमें न कोई अंश है न भाग; यह तुच्छ भाव अत्यंत हेय है, भ्रमपूर्ण है। पर प्रत्येक रूप की चिनगारी में वही अनंतात्मा चमक रहा है। सब उसी आत्मा के विग्रह स्वरूप हैं। उसे पावें तो कैसे पावें? पहले यह आप बतलाइए। याज्ञवल्क्य कहते हैं―“पहले आत्मा को श्रवण करना चाहिए।” इस प्रकार उन्होंने कहा; फिर उन्होंने युक्तिवाद दिया और अंत को यह सिद्धांत स्थिर किया कि उसे जानें कैसे जिससे सारा ज्ञान हो सकता है। फिर अंत को उसका निदध्यासन करते हैं। फिर वह सूक्ष्म और स्थूल जगत् को लेते हैं और दिख- लाते हैं कि कैसे वे एक चक्र पर घूम रहे हैं और कैसे सुंदर जान पड़ते हैं। पृथ्वी कैसी आनंदमय और कैसी सबकी उप- कारिणी है; और सब प्राणी पृथ्वी के लिये कैसे उपकारी हैं। वह स्वयं प्रकाश आत्मा है, कोई उसके लिये उपकारी नहीं हो सकता। जो आनंद है वह निकृष्ट क्यों न हो, उसीका आभास है। जो अच्छा है, सब उसका आभास है, और जब वह आभास छाया होती है, तो उसे बुरा कहते हैं।