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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२०७

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कोई दो देवता हैं ही नहीं। जब वही कम व्यक्त होता है, तब उसोको अंधकार या बुराई कहते हैं; और जब अधिक व्यक्त होता है तब वही प्रकाश कहलाता है। यही बात है। वह भले और बुरे में केवल मात्रा के भेद से है, कम व्यक्त वा अधिक व्यक्त के भेद से। हमारे ही जीवन का उदाहरण लीजिए। हम अपने बचपन में कितनी ही चीजों को देखते हैं जो हमें अच्छी लगती हैं, पर वास्तव में वे बुरी होती हैं। कितनी ही चीजें बुरी जान पड़ती हैं जो सचमुच भली होती हैं। पर यह भाव बदलता कैसे है? कैसे विचार उन्नत होता जाता है? जिसे हम एक समय बहुत अच्छा समझते हैं, वहीं पीछे वैसा अच्छा नहीं रह जाता। अतः भलाई और बुराई विश्वास की बात हुई, और वे कहीं हैं नहीं। भेद केवल मात्रा का है। सब उसी आत्मा की अभिव्यक्ति है। वह सब रूपों में अभिव्यक्त हो रहा है। जब अभिव्यक्ति बहुत स्थूल होती है, तब हम उसे बुरा कहते हैं और जब सूक्ष्म होती है, तब हम उसे अच्छा कहते हैं। जब सारी बुराई जाती रहती है, तब वही सर्वोत्तम होता है। अतः विश्व में जो कुछ है, सबका पहले निदध्यासन करना चाहिए। उसी अवस्था में वे सब हमें अच्छे देख पड़ेगे क्योंकि वे सर्वोत्कृष्ट है। यहाँ बुरा भी है और भला भी, पर सब सर्वोत्कृष्ट सत् ही हैं। वह न बुरा है न भला, वह सर्वोत्कृष्ट है। सर्वोत्कृष्ट एक ही हो सकता है, भले बुरे तो अनेक हो सकते हैं। भले बुरे में मात्रा का अंतर होगा, पर सर्वोत्कृष्ट