पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२१

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सत्यपुरुष एक ही सा नहीं समझा जाता। जिस धर्म में यह अंध- विश्वास वा मिथ्या सिद्धांत है कि लौकिक निःसारता और उच्च आदर्श में सादृश्य है, जिसमें ईश्वर को मनुष्य की कोटि में बलपूर्वक खींचकर लाते हैं, उसीका नाश होता है। मनुष्य को लोक का दास नहीं होना चाहिए। उसे ईश्वर का आसन वा पद मिलना चाहिए।

साथ ही साथ हमें इस प्रश्न के दूसरे ओर भी देखना चाहिए। हमें दूसरों को घृणा की दृष्टि से न देखना चाहिए। हम सब एक ही लक्ष्य की ओर जा रहे हैं। निर्बलता और सब- लता में भेद केवल मात्रा का ही है; स्वर्ग-नरक में केवल मात्रा का ही अंतर है; जीवन और मृत्यु में केवल मात्रा का ही अंतर है; इस लोक और परलोक में केवल मात्रा का ही अंतर है; प्रकार का अंतर नहीं है। कारण यह है कि सब का रहस्य वही एक है। सब एक ही हैं जो भिन्न भिन्न रूपों में व्यक्त हो रहे हैं। उसी की अभिव्यक्ति बुद्धि, जीवन, आत्मा, देह आदि सब हैं। उनमें केवल मात्रा का ही अंतर है। इस प्रकार हमें कोई अधिकार नहीं है कि उन्हें घृणा की दृष्टि से देखें जो उतना अधिक अभिव्यक्त नहीं हो सके हैं जितना हम हो चुके हैं। किसी को बुरा मत कहो। यदि तुम से हो सके तो उसे सहा- यता पहुँचाओ। यदि न हो सके तो चुपचाप रहो, अपने भाई को आशीर्वाद दो और उसे अपनी राह जाने दो। किसी को घसीटना वा भला बुरा कहना काम चलाने की बात नहीं है।