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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२१४

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करते हैं कि इस शरीर के अतिरिक्त जो नाशमान है, इसमें एक और अंश है जिसका नाश नहीं है। वह निर्विकार, नित्य, अविनाशी है। पर कुछ धर्मवालों की शिक्षा है कि यद्यपि उस अंश का नाश नहीं है, फिर भी उसका आदि अवश्य है। पर जिसका आदि है, उसका अंत भी अवश्य ही है। हमारे इस शरीर का जो प्रधान वा सार अंश है, उसका न आदि है और न अंत। और इसके परे, इस नित्य स्वभाव के परे एक और नित्य सत्ता है जिसका अंत नहीं है―ईश्वर वा परमात्मा। लोग संसार के आदि और मनुष्य के आदि की बातें करते हैं। आदि का अर्थ है कल्प का आदि वा आरंभ। कहीं यह अर्थ नहीं है कि समस्त का, कार्य्य-कारण रूप सृष्टि का आदि भी कभी है। यह असंभव है कि इस सृष्टि का आरंभ भी हुआ हो। जिसकी आदि है उसका अंत भी अवश्य ही है। भगवद्गीता में कहा है―न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपः। न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्। (गी० अ० २।१२।) जहाँ जहाँ सृष्टि के आदि की बात है, वहाँ वहाँ कल्पादि ही से अभिप्राय है। आपका शरीर भले ही मर जाय, पर आत्मा कभी नहीं मरता।

आत्मा के इस विचार के साथ ही साथ उसकी पूर्णता के संबंध में कुछ और विचार भी मिलते हैं। आत्मा स्वयं पूर्ण है। इब्रानी नई धर्म पुस्तक में लिखा है कि मनुष्य आदि में पूर्ण था। मनुष्य ने अपने हाथ से, अपने कर्म से अपने को अपवित्र