पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२२०

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लड़कर सिद्ध करना चाहते थे। जो संग्राम में अच्छा लड़ता था, वही अपने ईश्वर को सबसे बड़ा प्रमाणित कर सकता था। ये जातियाँ कुछ न कुछ जंगली थीं। पर धीरे धीरे पुराने विचारों के स्थान पर नए विचार आते गए। वे सब पुराने विचार चले गए और चले जा रहे हैं। वे सब धर्म शताब्दियों की वृद्धि के फल थे; कुछ आकाश से नहीं टपके थे। सब अणु अणु करके बने थे। फिर एकेश्वरवाद का भाव आया, अर्थात् एक ईश्वर पर विश्वास जो सर्वव्यापी और सर्वशक्ति- मान् हो, विश्व मात्र का एक ईश्वर हो। यह ईश्वर सृष्टि से परे होता है और स्वर्ग में रहता है। उसमें उसकी कल्पना करनेवालों के ठोस विचार भरे रहते हैं। उसका दाहिना और बायाँ होता है और उसके हाथ में एक पोथी रहती है। पर एक बात हमें देख पड़ती है कि ये भिन्न भिन्न जत्थों के ईश्वर अब सदा के लिये जाते रहे और उनका स्थान विश्व के ईश्वर ने, जो देवताओं को भी देवता था, ले लिया। फिर भी वह वही अलौकिक ही बना रहा। न उसके पास कोई पहुँच सकता, न कुछ उसके पास जा सकता था। पर धीरे धीरे यह विचार भी बदल गया और हमें ईश्वर अपने ही स्वरूप में सन्निहित मिलता है।

नई नियम की पुस्तक में यह कहा गया है कि ‘हमारे पिता जो आकाश वा स्वर्ग में हैं।’ अर्थात् स्वर्ग में रहनेवाला ईश्वर मनुष्यों से अलग है। हम पृथ्वी पर रहते हैं, वह स्वर्ग में।