जान सकते। यदि ईश्वर जाना जा सके तो वह ईश्वर ही न रहेगा। ज्ञान तो सीमा है। पर “मैं और मेरा बाप एक ही हैं।” मुझे अपनी आत्मा में ही सत् मिलता है। किसी किसी धर्म में यह भाव व्यक्त किया गया है; औरों में संकेत मात्र से आया है। किसी में वह बिल्कुल निकाल ही दिया गया है। ईसा की शिक्षाओं को इस देश में लोग बहुत कम समझते हैं। आप क्षमा करें, मैं यह कह सकता कि उनको कभी किसी ने नहीं समझा।
वार्धक्य की भिन्न भिन्न श्रेणियों की पूर्णता और पवित्रता लाभ करने को बड़ी आवश्यकता है। धर्म के भिन्न भिन्न संप्र- दायों का आधार वही भाव है। ईसा कहता है कि “स्वर्ग का साम्राज्य तुम्हारे भीतर है।” फिर वह यह भी कहता है कि, ‘हमारे बाप जो स्वर्ग में हैं’। इन दोनों परस्पर विरुद्ध बातों का समाधान क्या? इनका परिहार यह है। जब उसने अंतिम वाक्य कहा तब वह अशिक्षितों से, जो धर्म की बात नहीं जानते थे, बातें करता था। उनसे उन्हीं की बोलचाल में बातें करना उचित है। जनसाधारण को स्थूल भाव की आवश्यकता है, ऐसी चीज की जिसका ग्रहण वे अपनी इंद्रियों से कर सकें। संभव है, संसार में कोई बड़ा विद्वान् हो, पर वह धर्म की बातों में बाल-धी हो। जब मनुष्य की आध्यात्मिकता प्रोन्नत हो जाती है, तभी वह इस बात को कि स्वर्ग का राज्य मेरे ही भीतर है, समझ सकता है। यह मन का वास्तविक साम्राज्य है। इस