प्रकार हम देखते हैं कि जो स्पष्ट विरोध और असंबद्धता धर्मों में मिलती है, वह वृद्धि की भिन्न भिन्न अवस्थाओं ही के कारण है, उनकी ही द्योतक है। इस प्रकार हमें किसी के धर्म पर दोषारोपण करने की आवश्यकता नहीं है। वृद्धि की ऐसी भी दशाएँ हैं जहाँ मूर्तियों, प्रतीकों और विभिन्नताओं की आव- श्यकता है। वे ऐसी भाषाएँ हैं जिन्हें उन पर विश्वास रखने- वाली आत्माएँ ही समझ सकती हैं।
दूसरी बात जो मैं आपके सामने लाना चाहता हूँ, यह है कि धर्म में विधि और वाद नहीं हुआ करते। इसकी कोई बात नहीं कि आप क्या पढ़ते हैं वा आप किस वाद को मानते हैं। बात यह है कि आप साक्षात् क्या करते हैं। “धन्य हैं वे जिनका अंतःकरण शुद्ध है क्योंकि वे ईश्वर को देखेंगे”। हाँ इसी जन्म में देखेंगे; और वही मोक्ष है। जगत् में ऐसे लोग भी हैं जो यह शिक्षा देते हैं कि वह शब्दों के उच्चारण मात्र से मिल सकता हूँ। पर किसी बड़े महात्मा की शिक्षा यह है कि मोक्ष के लिये बाह्य बातों की आवश्यकता नहीं है। इसके प्राप्त करने की शक्ति हमारे भीतर है। हम ईश्वर में रहते हैं और उसी में चलते फिरते हैं। मत और संप्रदाय अपना काम करते रहते हैं। वे बच्चों के लिये हैं और थोड़े ही दिन तक रहते हैं। पुस्तकें धर्म का कारण नहीं हैं, अपितु धर्म पुस्तकों के कारण हैं। हमें यह भूल न जाना चाहिए। किसी पुस्तक ने ईश्वर को नहीं उत्पन्न किया, पर ईश्वर ने सारी बड़ी बड़ी पुस्तकें प्रेरणा