कारण हो गए हैं। हमें अपना निज का धर्म, जहाँ तक कि बाह्य अवस्था से संबंध है, रखना चाहिए।
बहुत दिन हुए, मुझे अपने देश में एक महात्मा से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। हम प्रेरित पुस्तकों के विषय में जैसे हमारा वेद, आपकी इंजील और मुसलमानों का कुरान है, सामान्य रूप से बातें करते रहे। जब बातें हो चुकीं, तब महात्मा ने मुझ से कहा कि मेज पर जाओ और उस पर से एक पोथी उठा लाओ। वह एक ऐसी पुस्तक थी जिसमें और बातों के अतिरिक्त वर्ष में होनेवाली वर्षा के संबंध की बातों का वर्णन भी था। महात्मा ने कहा, इसे पढ़ो। मैंने उसमें यह पढ़ा कि इस वर्ष इतनी वर्षा होगी। फिर उसने कहा कि इस पुस्तक को ले जाकर निचोड़ो। मैंने उसे निचोड़ा। तब महात्मा ने कहा, बच्चा, इससे तो एक बूँँद भी पानी नहीं निकला। जब तक पानी न निकले, तब तक यह पुस्तक ही पुस्तक है। इसी प्रकार जब तक धर्म से आपको ईश्वर का बोध न हो, तब तक वह व्यर्थ है। जो पुस्तकों को धर्म के लिये पढ़ता है, वह वैसा ही है जैसा कि वह गधा जिस पर शक्कर की गाँठ लदी थी, पर जिसे उसकी मिठास का बोध नहीं था।
क्या लोगों को हम यह सम्मति दें कि घुटने टेककर चिल्लायो किं हम हीन और पापी हैं? नहीं कभी नहीं, हमें उनको उनकी दैवी प्रकृति का स्मरण दिलाना चाहिए। मैं आपसे एक कहानी कहूँगा। पक सिंहनी शिकार ढूँढ़ती हुई भेड़ों के एक झुंड पर