ता का बार बार स्मरण करने से कुछ लाभ नहीं होता। उससे बल थोड़े ही आता है। सदा यह सोचते रहने से कि, हम निर्बल हैं, बल कभी आ नहीं सकता। निर्बलता का प्रतीकार निर्बलता को सेने से नहीं होता, अपितु बल के स्मरण से होता है। लोगों को वह बल बतलाओ जो उनके भीतर भरा है। लोगों से यह कहने के स्थान में कि ‘तुम पापी हो’ वेदांत विरुद्ध पक्ष को लेता है और कहता है कि ‘आप शुद्ध और पूर्ण हैं। जिसे आप पाप कहते हैं, वह आपका नहीं है’। अभिव्यक्ति का ‘पाप’ अत्यंत निकृष्ट रूप है। आप अपने को उच्च मात्रा में अभिव्यक्त कीजिए। एक बात स्मरण रखिए कि हम सब कुछ सहन कर सकते हैं। कभी न कहो, यह कभी न कहो कि यह हमसे नहीं हो सकता। आप तो अप्रमेय हैं। आपकी प्रकृति के सामने देशकाल की काई गणना नहीं है। आप सब कुछ कर सकते हैं, आप सर्वशक्तिमान् हैं।
यही आचार-शास्त्र का तत्व है। पर हम इससे नीचे उतरते हैं और एक एक करके देखते हैं। उससे जान पड़ता है कि वेदांत नित्य के व्यवहार में लाया जा सकता है। क्या नगर में हो क्या गाँव में, क्या जातीय जीवन हो क्या गृहजीवन हो, सर्वत्र सब जातियों में यह व्यवहार में लाया जा सकता है। कारण यह है कि यदि धर्म मनुष्य को सब स्थानों और सब स्थितियों में सहायता नहीं पहुँचा सकता तो वह किसी काम का धर्म नहीं है। वह केवल सिद्धांत के रूप में इनेगिने लोगों के लिये
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