ले लेता है और उसे मानों वह रंग दे देता है जिसे अहंकार कहते हैं। मान लो कि मैं एक काम में लगा हूँ और मेरे हाथ की उँगली में एक मच्छड़ काट लेता है। मुझे उसका काटना इसलिये नहीं जान पड़ता कि मेरा मन किसी और काम में लगा रहता है। फिर जब मेरा मन इंद्रियों से संयुक्त होता है, तब मुझे वेदना होती है। जब मुझे वेदना होती है, तब मुझे मच्छड़ के काटने का बोध होता है। अतः केवल मन का इंद्रियों से संयुक्त रहना ही पर्याप्त नहीं है, इच्छा के रूप में वेदना का होना भी आवश्यक ठहरा। वह शक्ति जिसके कारण वेदना होती है, ज्ञानशक्ति वा बुद्धि कहलाती है। पहले बाहरी इंद्रियों के गोलक का होना आवश्यक है, फिर इंद्रियों का, फिर इंद्रियों के साथ मन के संयोग का, फिर वेदना के लिये बुद्धि के प्रति संयोग का; और जब ये सब बातें हो चुकीं, तब द्रष्टा और फिर दृश्य के भाव की उत्पत्ति होती है और तब कहीं जाकर प्रत्यक्ष ज्ञान वा बोध होता है। इंद्रियों के गोलक शरीर में होते हैं। गोलकों के परे इंद्रियाँ हैं, फिर उनसे परे मन है। फिर बुद्धि, फिर अहंकार है। इसी अहंकार से मैं देखता हूँ, मैं सुनता हूँ, आदि भावों की उत्पत्ति होती है। ये सब क्रियाएँ एक शक्ति से होती हैं। इस शक्ति को संस्कृत में प्राण कहते हैं। यह शरीर मनुष्य का एक भाग है जिसमें इंद्रियों के गोलक हैं। इसे स्थूल शरीर कहते हैं। इसके भीतर इंद्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकार हैं। इन सब के साथ प्राण मिलकर एक 'संयोग' बनता है जिसे
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