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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२३२

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सूक्ष्म शरीर कहते हैं। यह अत्यंत सूक्ष्म तत्वों या मूलों से बने होते हैं―इतने सूक्ष्म कि शरीर में कितना ही आघात पहुँचे, पर इससे उनको कोई हानि नहीं पहुँचती। वे शरीर के विकार प्राप्त होने पर भी बने ही रहते हैं। स्थूल शरीर स्थूल पदार्थों का होता है और यह सदा बनता और विकार को प्राप्त होता रहता है। पर भीतर की इंद्रियों, मन, बुद्धि और अहंकार की रचना सूक्ष्म पदार्थों से है। इतने सूक्ष्म कि जिससे वे कल्प कल्पांतर तक बनी रहती हैं। वे इतने सूक्ष्म होते हैं कि कोई उनको रोक नहीं सकता, वे हर एक अवरोध को पार कर सकते हैं। जैसे स्थूल शरीर जड़ है, वैसे ही सूक्ष्म शरीर भी जड़ है, वह सूक्ष्म पदार्थों से बना भले ही हो। यद्यपि उसके एक भाग को मन, दूसरे को बुद्धि और तीसरे को अहंकार कहते हैं, पर यह आप जान सकते हैं कि उनमें कोई ज्ञाता नहीं हो सकता। उनमें कोई द्रष्टा वा साक्षी नहीं हो सकता। मन, बुद्धि वा अहंकार की क्रियाएँ किसी दूसरे के लिये हैं। ये सब सूक्ष्म भूतों से भले ही बने हों, पर वे स्वयंप्रकाश नहीं हैं। उनमें स्वतः प्रकाश नहीं है। यह मेज की अभिव्यक्ति जो हो रही है, किसी भौतिक पदार्थ के कारण नहीं है। अतः उनकी आड़ में कोई अवश्य है जो उनका द्रष्टा, भोक्ता और अभिव्यक्त करनेवाला है। उसे आत्मा कहते हैं। वही सबका सच्चा द्रष्टा है। बाह्य इंद्रिय गोलक और इंद्रियाँ संस्कार को ग्रहण करती हैं और उनको मन के पास ले जाती हैं। मन बुद्धि को देता है