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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२३४

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कार्य्य है क्या? कारण ही का तो रूपांतर मात्रा है। यह शीशा है। मान लीजिए कि हम इसकी बुकनी कर डालें और रासा- यनिक परिक्रिया से इसे नष्ट कर दें; तो क्या आप समझते हैं कि यह शून्य हो जायगा? कदापि नहीं। रूप भले ही नष्ट हो जाय, पर वह अंश जिससे वह बना है, रह जायगा। वे इंद्रि- यातीत दशा को क्यों न प्राप्त हो जायँ, पर वे रहते हैं अवश्य; और नितांत संभव है कि उन अंशो से फिर शीशा बन सके। जैसे यह एक दशा में सत्य है, वैसे ही यह सब दशाओं में सत्य हो सकता है। असद् से सद् की उत्पत्ति कभी नहीं हो सकती। न सद् कभी असद् हो सकता है। यह सूक्ष्म से सूक्ष्म और स्थूल से स्थूल हो सकता है। समुद्र से भाप उठ- कर मेंह की बूँँद बनती है, वह पर्वत पर जाती है, फिर वह पानी हो जाती है और सैकड़ों मील बहकर समुद्र में पहुँचती है। बीज से वृक्ष होता है। वृक्ष नष्ट हो जाता है और बीज रह जाता है। फिर दूसरा बीज उत्पन्न होता है और अंत को फिर बीज ही रह जाता है। इसी प्रकार चक्कर चलता रहता है। पक्षी को देखिए। वह अंडे से निकलता है, सुंदर पक्षी हो जाता है। जीवन भर जीता है, फिर मर जाता है और अंडे बीज रूप में रह जाते हैं। यही अवस्था पशुओं और मनुष्यों की भी है। सब किसी बीज से, किसी पूर्व रूप से वा सूक्ष्म दशा से उत्पन्न होते हैं; स्थूल से स्थूल होते जाते हैं और अंत को सूदम होते होते अपने कारण में लय हो जाते हैं। सारा विश्व