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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२३३

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और बुद्धि पर उनका प्रतिबिंब दर्पणंवत् पड़ता है जिसकी दूसरी पीठ आत्मा है। वह उन्हें देखता है और अपनी आज्ञा देता है। यह इन करणों का अधिष्ठाता है, गृहपति और शरीर का राजा है। अहंकार, बुद्धि, मन, इंद्रियाँ, गोलक और शरीर सब उसके शासन को मानते हैं। वही इन सबको व्यक्त कर रहा है। वही मनुष्य की आत्मा है। हम देखते हैं कि जो बात विश्व के एक अणु वा लघु अंश में है, वही सारे विश्व में भी होगी। यदि विश्व का नियम साम्य है तो विश्व के एक एक अंश की रचना उसी नियम पर हुई है जिससे समस्त विश्व की है। अतः हम सहज में विचार सकते हैं कि इस स्थूल भौतिक पिंड के परे जिसे हम अपना विश्व कहते हैं, कोई सूक्ष्म भौतिक विश्व भी अवश्य है जिसे हम मन कहते हैं; और उसके परे आत्मा है जिसके कारण सारे ज्ञान होते हैं और जो इस विश्व का शासक और अधिपति है। जो आत्मा सब मनों के परे है, उसे प्रत्यगात्मा कहते हैं; और वह आत्मा जो इस विश्व के परे उसका शासक और अधिपति है, ईश्वर कहलाता है।

दूसरी विचारणीय बात यह है ये सव कहाँ से उत्पन्न होते हैं। उत्तर यह है कि उत्पन्न होने से क्या अभिप्राय है। यदि इसका यह आशय है कि शून्य से किसी पदार्थ की उत्पत्ति हो सकती है, तब तो यह असंभव है। यह सब सृष्टि और अभिव्यक्तियाँ जो देख पड़ती हैं, शून्य से कभी उत्पन्न नहीं हुई हैं। बिना कारण के कार्य्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। पर